डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दूसरा-5
क्रमशः......*दूसरा अध्याय*(गीता-सार)
सुभ अरु असुभयइ फल कै भेदा।
निष्कामी नहिं रखहिं बिभेदा।।
      जे जन मन रह भोगासक्ती।
      अस जन बुधि नहिं निस्चय-सक्ती।।
अस्तु,होहु निष्कामी अर्जुन।
सुख-दुख-द्वंद्व तजहु अस दुर्गुन।।
      आत्मपरायन होवहु पारथ।
       लरहु धरम-जुधि बिनु कछु स्वारथ।।
पाइ जलासय भारी जग नर।
तजहिं सरोवर लघु तें लघुतर।।
       ब्रह्मानंद क पाइ अनंदा।
       बेद कहहिं नहिं नंदइ नंदा।
तव अधिकार कर्म बस होवै।
इच्छु-कर्म-फल नर जग खोवै।।
      तजि आसक्ती सुनहु धनंजय।
      करहु कर्म बिनु मन रखि संसय।।
भाव-समत्वयि,सिद्धि-असिद्धी।
करहु जुद्ध तुम्ह निस्चय बुद्धी।।
      ग्यानी जन जुड़ि बल-बुधि-जोगा।
      जन्म-बन्धनहिं तजि फल-भोगा।।
भइ निर्दोष सकल जग माहीं।
अमृत निहित परम पद पाहीं।।
       मिलइ बिराग तुमहिं हे अर्जुन।
       मोह- दलदलइ तिर तव बुधि सुन।।
दोहा-परमातम मा जबहिं सुन,स्थिर हो बुधि तोर।
        जोग-समत्वइ लभहु तुम्ह,नहिं संसय अह थोर।।
        किसुन-बचन अस सुनि कहेउ,अर्जुन परम बिनीत।
        स्थिर-बुधि जन कस अहहिं,हे केसव मम मीत ??
                        डॉ0हरि नाथ मिश्र
                        9919446372      क्रमशः.........

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