सत्यप्रकाश पाण्डेय

प्रेम के धागे थे,
जिनसे बांध गया कोई।
मेरी जीवन डोर,
खुद ही थाम गया कोई।।


जिंदगी थाती थी,
मुरलीधर तुम्हारी ही।
तुम राधा के भाग्य,
राधे तो तुम्हारी ही।।


तुम साथ मेरे तो,
नहीं शिकवा मुझे कोई।
श्याम से ही राधा,
तेरे बिन और न कोई।।


अनजाने ही कृष्ण,
पर सानिध्य तेरा मिले।
सौभाग्य मेरा प्रभु,
कृष्ण पूर्व ही नाम मिले।।


श्रीराधे गोपाल की जय🌸🌸🌸🌸🌸🙏🙏🙏🙏🙏


सत्यप्रकाश पाण्डेय


कवि डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" नयी दिल्ली


शीर्षकः मचल रही मनमीत मैं


रिमझिम  रिमझिम   वारिशें , भींगी   भींगी  नैन।
मचल  रही   मनमीत   मैं, आलिंगन   निशि  रैन।।१।।
मंद मंद   शीतल   . पवन , हल्की   मीठी    धूप। 
लहराती   ये   वेणियाँ ,चन्द्रमुखी   प्रिय     रूप।।२।।
काया नव किसलय समा ,गाल बिम्ब सम लाल। 
नैन   नशीली   हिरण सी, मधुरिम  बोल  रसाल।।३।।
चली   मचलती   यौवना , मन्द   मंद    मुस्कान।
खनक   रही पायल सुभग ,नवयौवन अभिमान।।४।।
लहर   दुपट्टा  लालिमा , कजरी    नैन  विशाल।
पीन  पयोधर  तुंग सम , गजगामिनि     बेहाल।।५।।
उतावली साजन मिलन, चपल  प्रिया  रुख्सार।
छलकाती   नैनाश्रु  को , मनुहारी      अभिसार।।६।।
सजी  धजी  तन्वी  प्रिया , तनु  षोडश   शृङ्गार।
दौड़ी मृग सम रूपसी , मिलन  सजन दिलदार।।७।।
तन मन   शीतल  साजना, प्रेम सरित   रसधार।
मुख सरोज  स्मित अधर ,  बनी प्रीत   गलहार।।८।।
बनी सुभग वन  माधवी ,कोकिल प्रियतम गान।
मचल   रहा  अलिवृन्द मन ,गन्धमाद रतिभान।।९।।
सुरभित वासन्तिक कशिश,नँच निकुंज मनमोर।
अलंकार     रसमाधुरी ,   कविता रव  चितचोर।।१०।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक (स्वरचित)
नयी दिल्ली


प्रखर दीक्षित* *फर्रुखाबाद

पंच मुक्तिका


दर्द को कर दवा
=========
व्यर्थ का बैर पाले क्यों उलझा खड़ा।
जो आया यहाँ, उसे जाना पड़ा।।
व्यर्थ का रोब ये व्यर्थ की दास्तां,
आयी संकट घड़ी , कौन होता खड़ा ।।


सांस दो सांस जीवन, संभालो इसे ।
द्रोह आवेश गंदला, निकालो इसे।।
न गया साथ कुछ, तू लाया था क्या,
वक्त पाशा अमोलक उछालो इसे ।।


वक्त चूके अगर तो फिर पछताओगे ।
गर निराशा जहन तो पिछड़ जाओगे।।
जिंदगी चार दिन की पुरुषारथ करो,
प्रखर कर लो जतन, तो निखर जाओगे ।।


न हमारा है कुछ, जग तुम्हारा नहीं।
करूँ सिद्धान्त खारिज गवारा नहीं ।।
हम तुम्हें रास आऐं , न आऐं प्रखर,
सत्य मारग से मेरा , किनारा नहीं।।


कर्म करिए  जहन  , सदवृत्ती रहे।
पाक दामन रखें नहीं मंदा* कहें ।।
आचरण हो सहज, मान सम्मान दें,
दर्द को कर दवा, कष्ट विपदा सहें।।


ज्ञान विज्ञान हो , और अनुभूतियाँ।
सफल साकार हो, वेद की सूक्तियाँ।।
शिष्टता दिव्यता प्रखर परहित जिऐं,
धैर्य का हो वरण, नाश कमजोरियाँ।।


बांसुरी सी बजे जिंदगी मधुरमय।
भाव निस्पृह सदा पास हो न अनय।।
सत्य को जानकर झूठ को छानकर,
क्रोध हिंसा तजें प्रखर होगी विजय।।


*मंदा= निकिष्ट


*प्रखर दीक्षित*
*फर्रुखाबाद*


कवि शमशेर सिंह जलंधरा टेंपो हांसी , हिसार , हरियाणा

 ग़ज़ल 


खुशियों की हो बस बौछार जिंदगी में ।
तुम बांटते रहना प्यार जिंदगी में ।।


 तुम पूछ लो कीमत अपनेपन की उससे ,
जिस को नहीं मिलता प्यार जिंदगी में ।


वह खुशनसीब है यारों बहुत कसम से ,
सपने हो जिसके साकार जिंदगी में ।


तुम भी उठा लो बीड़ा बदल के रहना ,
करना नया है हर हाल जिंदगी में ।


वादा करो मिलजुल कर हमें है करना , 
इंसानियत का प्रचार जिंदगी में ।


उसको झुका देंगे हौसलों से अपने ,
बोता है जो नफरत खार जिंदगी में ।


नुकसान होकर भी " टेंपो " यकीनन ,
घटते नहीं है आसार जिंदगी में ।


@9992318583@


मासूम मोडासवी

सब कूछ यहां पे छोडके जाना है सोचीये
नाता  सभीसे हमको  निभाना है सोचीये


हमने हसीन ख्वाब जो देखाथा जिंदगीका
जहेमत उठाके उसको ही पाना है सोचीये


जीसने बनाया हमको महोबत से शादमां
वाअदा निभाने उनको ही आना है सोचीये


चाहा जीसे  उनसे अपना भला  वास्ता रहे
उल्फत भरे तरानों को हमें गाना है सोचीये


मासूम अधुरे पन का ये मिलना नहीं कबुल
हो के  निसार खुद को हमें पाना है सोचीये


                           मासूम मोडासवी


कवि शमशेर सिंह जलंधरा टेंपो ऐतिहासिक नगरी हांसी , हिसार , हरियाणा

सफलता वाला फल 


संघर्ष की जीवन में ,
महत्वता होती है बहुत बड़ी ,
भरोसा और विश्वास ,
होती है जिसकी सबसे प्रबल कड़ी ।
जिसके टूट जाने से ,
संघर्ष का सारा साम्राज्य खत्म हो जाता है ,
या यूं कहें फलहीन हो जाता है ।
मतलब हाथ लगती है ,
सिर्फ निराशा , असफलता ।
विश्वास की कड़ी टूटने से ,
दम तोड़ने लगता है ,
आशा का दीपक ,
क्षीन पड़ने लगती है ,
सफलता की संभावनाएं ।
यानी विश्वास वाली कड़ी ही ,
सफलता का मूल है ,
जिसे सीचना होता है ,
कठिन परिश्रम से ,
डालनी होती है ,
हौसले वाले खाद ,
ताकि मिलती रहे ,
मूल को शक्ति ,
और बढ़ता रहे संघर्ष ।
फिर एक दिन मिलता है ,
सफलता वाला फल ,
जिसका स्वाद होता है निराला और बहुत आनंददाई ।


@9992318583@


विजयी नहीं होने दूँगा  विडंबना तो देखो ईश्वर!

 


डा० भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून, उत्तराखंड 


विजयी नहीं होने दूँगा 



विडंबना
तो देखो ईश्वर!
दोनों का भाग्य 
एक सा लिखा तुमने 
मुझे अपंग बना
पहले पिता फिर 
माँ छीन ली 
इस मासूम को भी 
अनाथ कर डाला,
पर सुनो!
मैं तुम्हें 
विजयी नहीं होने दूँगा...!
हम अनाथ अब 
एक-दूसरे का साथ बनेंगे 
अपने सुख-दुख 
मिल कर जियेंगे,
मनुष्यों की भीड़ में 
इस साथ से बढ़ कर 
विश्वसनीय नहीं 
कोई दूसरा अब हमारे लिए.....!!
————————————-


नशापान  सै  मौत  का,  पक्का   दस्तावेज

भूपसिंह भारती, 
आदर्श नगर नारनौल
नशापान


नशापान  सै  मौत  का,  पक्का   दस्तावेज।
जीणा  सै तो  भाइयों,  इससै  करो  परहेज।
इससै  करो  परहेज,  छोड़ दो हुक्का पाणी।
सिकरट दारू करै, जीण की खत्म कहाणी।
करै  कैंसर  कसूत,  बणा   क्यूँ   नादान  सै।
कैंसर  का ही  दूत,  दिखे  यो  नशापान  सै।


     विश्व कैंसर दिवस 


अभिजित त्रिपाठी "अभि" पूरेप्रेम, अमेठी उत्तर प्रदेश

 आया है फिर से वसंत


प्रणय छंद लेकर अनंत।।
आया है, फिर से वसंत।।


मधुर गंध, सुंदर सुगंध।
चली वायु जब मंद-मंद।
सम्मुख सरसों के पुष्प गुच्छ।
जग वैभव लगते सभी तुच्छ।
जग में है आई नव बहार।
हैं सभी प्रफुल्लित निर्विकार।
लिखते हैं निराला और पंत।।
आया है, फिर से वसंत।।


प्रकृति यूं सुहावन-मनभावन।
ज्यों लगता, फिर आया सावन।
हरा, लाल , नारंगी, पीला।
मौसम एकदम रंग-रंगीला।
सूनी धरती की है भरी गोद।
हर ओर ठिठौली और विनोद।
गाते नर, किन्नर और संत।।
आया है, फिर से वसंत।।



अभिजित त्रिपाठी "अभि"
पूरेप्रेम, अमेठी
उत्तर प्रदेश
मो. - 7755005597


डा० भारती वर्मा बौड़ाई देहरादून, उत्तराखंड

 


ठिठुरती ठंड 



ठिठुरती सुबहें हैं ठंडी शाम 
धूप बिना अब कहाँ आराम 


चाय गरम और संग पकौड़े 
देख इन्हें हर कोई खाने दौड़ें 


ठिठुरती ठंड लो कहने आयी 
कोई मुझे भी दो शॉल रजाई 


मूँगफली रेवड़ी के दिन आये 
गुड़ पट्टी लड्डू गजक मन भाये 


स्वेटर शॉल उतर नहीं पाते 
शाम हुई झट हीटर लगाते


नानी घर के क्या हैं कहने 
सर्दी में हम जब जाते रहने 


तिल लड्डू गाजर का हलवा 
बच्चों बीच कराता बलवा


तब नाना रेफ़री बन कर आते 
हँसते हँसते मीठी डाँट पिलाते 


उढ़ा रजाई झट सबको बैठाते
सुना कहानी हौले ज्ञान बढ़ाते 


नाना घर सर्दी भी मन भाती थी 
अब सर्दी उनकी याद दिलाती।
————————————
डा० भारती वर्मा बौड़ाई


डॉ. राम कुमार झा निकुंज नयी दिल्ली

अंगूठी
मैं अंगूठी नायाब हूँ
मैं अंगूठी हूँ प्रमाण इतिहास  का, 
भारत के पुरातन राष्ट्र निर्माण का,
मैं हूँ शाश्वत चिरन्तन  प्रतिमानक,
खूबसूरत मुहब्बत  ए दीदार  का।
अंगूठी हूँ स्मृतिचिह्न सिया राम की,
वियोगिनी विरही मिलन नवाश की,
मैं  डोर हूँ हर कशिश  दिलदार की,
मानक मैं अनुराग का परस्पर मिलन हूँ।
तोहफ़ा या समझो सगुन अनुबन्ध का,
प्रेमी युगल तटबन्ध  नित जीवन्त हूँ,
आभास हूँ अहसास बन प्रेमी हृदय, 
 प्रेमी युगल  नित  प्रीत का  उद्गार हूँ।
चारुतम कंचन रजत मणि हीरा जड़ित, 
पत्थरों में सजी हूँ अनवरत  रंगीन  मैं ,
मैं मांगलिक परिणय युगल नव जिंदगी,
ऊँगुलियों में सजी शोभा बनी अंगूठी हूँ।
बन शान व सम्मान खूबसूरत महफ़िलें,
समरस अमन समदर्श  का प्रतीमान हूँ,  
सुन्दर   मनोरम  जिंदगी   हर   चाहतें ,
बेवफ़ाई के सितम  ए  गमों में  अंगूठी ,
दर्द ए ज़िगर अभिलेख बन नयनाश्रु हूँ।
जोड़ती हर  प्यार   को  बन  मधुरिमा,
हौंसलों की उड़ान मैं खिली मुस्कान हूँ,
हूँ सहेली हमसफ़र प्रेम  का शृङ्गार  मैं, 
मनोहर आनंदकर प्रियहृदय अभिलाष हूँ।
सुन्दर  सुखद  नित  प्रेमरस  पैगाम हूँ, 
सजनी सजन रतिराग  बन अनुराग हूँ,
नवकिरण बन जिंदगी नव उल्लास  मैं,  
अंगूठी प्रियतर मनुज रोशनी नायाब हूँ।
डॉ. राम कुमार झा निकुंज
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नयी दिल्ली


प्रिया सिंह लखनऊ

कहता है ऊलजलूल जमाना तो कह लेने दो ना
आज मनगढ़ंत बातों को उसकी सह लेने दो ना 


कलंकित जब सीता है जमाने में तो..मैं क्या हूँ 
दो अश्क इन आँखो से भी आज बह लेने दो ना 


खामोशियां उलझ जातीं है दामन में मेरे तो क्या 
शहर-ए-महफिल को भी खामोश रह लेने दो ना


आशियाना दिल का अब खंडहर होने को है तो
बचे ईंट को भी इमारत से आज ढह लेने दो ना


एक चिंगारी शोला बन तन बदन में आग लगा दे
उस आग से बनकर अगरबत्ती मुझे दह लेने दो ना


 


Priya singh


श्याम कुँवर भारती [राजभर] भारत वन्दना

हिन्दी कविता- हिन्द को नमन |
हिन्द को नमन जय हिन्द है नमन |
धरती और गगन वंदे मातरम है वतन |
गंगा यमुना सरस्वती करे पाप को समन |
खिले फुले राष्ट्र विविध रंग है सुमन |
हिन्द को नमन जय हिन्द है नमन |
बिहार बंगाल यूपी झारखंड है वतन |
महाराष्ट्र आंध्र तमिल गुजरात है वतन |
केरल कर्नाटका गोवा दमन दीप है वतन |
जम्मू कश्मीर लद्दाख अरुणाचल है वतन |
उड़ीसा आसाम मिजोरम तेलांगना है वतन |
मध्य प्रदेश छतिसगड़ उत्तराखंड है वतन |
गांधी शुभाष तिलक पटेल जिंदा है वचन |
हिन्द को नमन जय हिन्द है नमन |
महाराणा लक्ष्मी बाई विक्रमादित्य 
सम्राट अशोक है वतन |
आजाद भगत खुदीराम बिस्समिल वीर विरसा है वतन |
वीर शिवाजी चौहान पृथविराज है वतन |
नानक कबीर रहीम सूरदास तुलसीदास है वतन |
रैदास वेदब्यास बाल्मीकी प्र्हलाद है वतन |
हिन्द को नमन जय हिन्द है नमन |
पुरोसोत्तम श्रीराम सावरे घनश्याम है वतन |
मीराबाई सुभद्रा निराला परशुराम है वतन |
प्रेमचंद बच्चन टेगौर वकीमचंद है वतन |
हिन्द को नमन जय हिन्द है नमन |
मिर मिर्जा खुसरो ज्ञान विज्ञान इसरो है वतन |
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई जैन बौद्ध है वतन |
हिन्दी उर्दू बांग्ला भोजपुरी संस्कृत भाषा है वतन | 
हिन्द को नमन जय हिन्द है नमन |
पंजाबी मराठी खोरठा संथाली भाषा तमिल है वतन |
विश्वन्नाथ पार्श्वनाथ केदारनाथ बैदनाथ है वतन |
माता वैष्णो कामख्या तारापीठ
 बिंधयाचल छिन्नमस्ता है वतन |
दक्षिणेश्वर कालीघाट बालाजी महाकाल
अमरनाथ सारनाथ गौरीनाथ साईनाथ है वतन |
हिन्द को नमन जय हिन्द है नमन |
मोदी योगी साह अमित खिलाया है चमन |
दुश्मनों मार गिराया पहनाया है कफन |
बच्चे बुजुर्ग नारियो जवानो का वतन |
हर खासो आम सारी आवाम का वतन |


श्याम कुँवर भारती [राजभर]
 कवि ,लेखक ,गीतकार ,समाजसेवी ,


 मोब /वाहत्सप्प्स -9955509286


ओम अग्रवाल (बबुआ), मुंबई

*चलते-चलते:0205*
*⚜ आँखें ⚜*


*चित्त चपल चंचल चितवन, चपला चंद्र चकोरी हो।*
*कुञ्ज कली की कंचन काया, कुमुद कामिनी गोरी हो।।*
*नित्य नमन नित नेह नयन नित, नवनूतन श्रृंगार रहा।*
*जैसे चँदा का पूनम से, सदा सनातन प्यार रहा।*
*नेह सरोवर में अंबुज की, अर्ध खिली सी पाँखें हों।*
*कारी सी कजरारी सी प्रिय, मृगनयनी सी आँखें हों।।*
*जैसे शोभित नीलगगन में, सूरज और सितारे हैं।*
*लाज हया या नेह स्नेह ये, दोनों नयन हमारे हैं।।*
*विपदा कोई अनचाही सी, अपनों पर जब होती हैं।*
*सच कहता हूँ दोनों आँखें, सदा मौन हो रोती हैं।।*
*या खुशियों की खुश्बू कोई, तनमन में छा जाती है।*
*जाने क्यूँ तब अपनी भी ये, दो आँखें भर आती हैं।।*
*लाज हया से पलभर को जब, साँसे तक रुक जाती हैं।*
*अनजाने में जाने कैसे, आँखें भी झुक जाती हैं।।*
*क्रोध अगन में तन तपता जब, अपनी गीली दाल हुई।*
*जाने कैसे अनजाने ही, दोनों आँखें लाल हुईं।।*
*अगर कहीं हम सहज नहीं या, मिलने से कतराते हैं।*
*किन्तु अगर मिल जाए तो भी, उनसे आँख चुराते हैं।।*
*नेह नयन की मेरे प्रियवर, सीधी सत्य कहानी है।*
*सम्मानित है जीवन जबतक, इन आँखों में पानी है।।*


सर्वाधिकार सुरक्षित 
*🌹ओम अग्रवाल (बबुआ), मुंबई*


कवि सिद्धार्थ अर्जुन         छात्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय

राष्ट्र के प्रतिकूल यदि तेरा कोई भी काम होगा,
तू,तेरा परिवार,तेरा वंश भी बदनाम होगा......
माँग तू अधिकार अपने पर रहे यह ध्यान शाहीन,
राष्ट्र की गरिमा गिरी तो फिर बुरा अंजाम होगा....


नीर से ज़्यादा लहू है हिन्द की मिट्टी में यारों,
एकता ही एकता है भूत की चिट्ठी में यारों,
इस तरह टुकड़ों में बंटने से भला क्या काम होगा?
राष्ट्र की गरिमा गिरी तो फिर बुरा अंजाम होगा.....


देख ले बुनियाद इसकी,धर्म संगम है वहाँ,
अपने भारत देश जैसी संस्कृति भी है कहाँ?
धर्म-संस्कृति गर मिटी तो फिर नही आराम होगा,
राष्ट्र की गरिमा गिरी तो फिर बुरा अंजाम होगा....


ऐ हुक़ूमत ख़त्म कर दे साँप सब आस्तीन के,
हक़ हमारा है जहाँ तक ले लेंगे हम छीन के,
एकजुट संघर्ष का ही अब यहाँ कुछ दाम होगा,
राष्ट्र की गरिमा गिरी तो फिर बुरा अंजाम होगा...


               कवि सिद्धार्थ अर्जुन
        छात्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय
        (सर्वाधिकार सुरक्षित,मौलिक)


सुनीता असीम

दिल में तुमने रखा था राज मेरा।
और पूरा उठाया ....‌..नाज मेरा।
***
रात दिन चैन भी नहीं..... आए।
क्या कहीं भी नहीं इलाज मेरा।
***
काम में सब लगे रहे .....अपने।
किसने पूछा कभी मिजाज मेरा।
***
एक पक्षी जो सामने आया।
डगमगाने लगा जहाज मेरा।
***
चार उनसे हुईं निगाहें जो।
धड़कनों का बजेगा साज मेरा।
***
जब कभी एक हो गए हम तो।
क्या बिगाड़ेगा ये समाज मेरा।
***
सुनीता असीम
५/२/२०२०


सुनील कुमार गुप्ता  सहारनपुर-

 


कविता:-
 "जीत"
"भटकता रहा मन बावरा साथी,
समझा न एक बात-
मन के हारे हार है-मन के जीते जीत।
मन से न हारना कभी साथी,
जीवन में तुम्हे-
हार मिले या जीत।
हार में होना न निराश साथी,
जीत में ज्य़ादा -
मनाना न जश्न मीत।
हँसते ही रहेगे लोग तो साथी,
जीवन में चाहे-
हार हो या जीत।
हार कर भी हारे न जो साथी,
चलता रहे लक्ष्य की ओर-
मिलती मंज़िल टूटे न आशा की डोर।
भटकता रहा मन बावरा साथी,
समझा न एक बात-
मन के हारे हार है-मन के जीते जीत।।
ःःःःःःःःःःःःःःःःः             सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.abliq.in
ःःःःःःःःःःःःःःःःः          05-02-2020


लता प्रासर

सुप्रभात


कचरा भरा दिमाग में मन  कस स्वच्छ हो भाई
अपने आगे सब फीका है बन बैठा कसाई
स्वच्छ जगत हो स्वच्छ धरा हो सोचो सोचो
अपनी बात किए जाते हैं जनता जस लुगाई
लुट रही बिटिया लुटी व्यवस्था लूटा जन गण
भूखे पेट सोया है मुन्ना मुन्नी की छूटी पढ़ाई
टकटकी लगाए आंखें हैं कहां गया बच्चे की कमाई!
*लता प्रासर*


नूतन लाल साहू

भजन
बात समझ में, आईं अब हमारी
झूठी है सारी, दुनिया दारी
और न लो, परीक्षा हमारी
आईं शरण में प्रभु, हम तुम्हारी
मै तेरा था, भ्रम अब है टूटा
समय ने किया सब,ये रिश्ता झूठा
मोह माया में, मति गई मारी
आईं शरण में प्रभु हम तुम्हारी
बात समझ में आईं अब हमारी
झूठी है सारी दुनिया दारी
जिनके भरोसा करके, समझा था अपना
टूटा भरम सारा,मिथ्या था सब कुछ
मतलब की थी,सबकी यारी
आईं शरण में प्रभु हम तुम्हारी
बात समझ में आईं अब हमारी
झूठी है सारी दुनिया दारी
चंचल मन ने, बहुत नचाया
धन ही कमाने का,लक्ष्य बनाया
चैन गया उड़ी और नींद भी भागी
आई शरण में,प्रभु हम तुम्हारी
अंतिम आशा,भरोसा तिहारा
थक गया हूं, चहु ओर से हारा
ओम ओम ओम, हरि ओम ओम ओम
दृष्टि दया की, करो मंगल कारी
आई शरण में प्रभु हम तुम्हारी
बात समझ में,आई अब हमारी
झूठी है सारी, दुनिया दारी
और न लो अब,परीक्षा हमारी
आये शरण हम,प्रभु हम तुम्हारी
बात समझ में आई अब हमारी
झूठी है सारी दुनिया दारी
अपनी तो जिंदगी की
अजीब कहानी है
जिस चीज को चाहा
वो ही बेगानी है
हंसते भी है तो
दुनिया को हंसाने के लिए
वरना दुनिया डूब जाए
इन आंखों में,इतना पानी है
बात समझ में आई अब हमारी
झूठी है सारी दुनिया दारी
नूतन लाल साहू


श्याम कुँवर भारती [राजभर]

भोजपुरी होली गीत 3


-मस्त फागुन |
आया है मस्त फागुन 
उड़ती है तेरी चुनरिया |
सर सर बहती है मह मह महकति है हवा |
तुझे रंग लगाऊँगा मै हर हाल मे |
होली खूब खेलूँगा आज मै |
चलो मनाए फागुन |
आया है मस्त फागुन 
उड़ती है तेरी चुनरिया |
सर सर बहती है मह मह महकति है हवा |
बागो बहारों कलियाँ खिलने लगी |
फागुन महीने गोरी मचलने लगी |
गोरी तू अन्जान मत बन |
आया है मस्त फागुन 
उड़ती है तेरी चुनरिया |
सर सर बहती है मह मह महकति है हवा |
तेरी अंगड़ाई मन बहकने लगा है |
खेलूँगा होली दिल मचनले लगा है |
संतोष भारती है तेरा सजन |
आया है मस्त फागुन 
उड़ती है तेरी चुनरिया |
सर सर बहती है मह मह महकति है हवा | 


श्याम कुँवर भारती [राजभर]
कवि ,लेखक ,गीतकार ,समाजसेवी ,


देवानंद साहा " आनंद अमरपुरी "

 जीवन-सत्य


फूल   सभी   चुनते  हैं , पर   काँटे   छोड़   देते हैं;
प्यार   सभी   करते  हैं , पर   वादे   तोड़  देते   हैं।
सिर्फ   मैं   ही   नहीं ,  सारा   जमाना   कहता   है;
सुख में  देते  हैं  साथ  सभी, दुःख में छोड़ देते हैं।।


मेरे ख्याल में मानव को ,सिर्फ इंसान रहना चाहिए;
न  तो भगवान  और  न  ही  हैवान  बनना  चाहिए।
इंसान   की  मर्यादा   इंसान   ही  बने  रहने  में  है-
व्यर्थ महत्वाकांक्षी चकाचौंध में,न फसना चाहिए।।


इतिहास  साक्षी है,जब  महत्वाकांक्षाओं ने  घेरा है;
मनुष्य  ने  हमेशा  ही , परिवर्तन का माला फेरा है।
पर   परिवर्तन   के   पर्दे   के  पीछे से , बराबर ही-
मानवता   और    इंसानियत    को   ,  छेड़ा   है ।।


मनुष्य   अपने   आपको  , पहचानना   सिख   ले;
अपने  हाथों से अपनी तकदीर  , बनाना सीख ले।
अगर  इन  नकाबपोश  हमदर्दों  से , बचना है तो-
स्वयं  को  शब्दजालों   से ,  बचाना   सिख   ले।।


फिर   भी   मानव-प्रकृति  ,  नियति  का  दास है;
परिस्थितियों  से भागना , जीवन  का परिहास है।
जिन्दगी   को   सभ्यता   से  ,  जिया   जाय  तो-
जीवन   का    प्रत्येक    महीना  ,  मधुमास   है।।


------------------ देवानंद साहा " आनंद अमरपुरी "


डा.नीलम अजमेर

 


जीत की चाह में वो हद से गुज़र गए
लाशों के ढेर पर ढेर लगाते चले गए


शत्रुता की हर हद पार करते चले गए
साम-दाम-दण्ड-भेद हर पैतरे अपनाते चले गए


हम तो शांति के लिए क़ानून
बनवाते चले गए
वो क़ानून के परखच्चे उड़ाते चले गए


जो शांतिदूत बनते हैं सफ़ेद पोशाक पहन कर
वाणी से वही आग भड़काने चले गए


अपनेपन से गले लगाते हैं महफ़िल में 
एकांत में मगर पीठ में खंज़र घुपाते चले गए।


      डा.नीलम


स्नेहलता 'नीर'

कुण्डलिया छंद


नारी को हक कब दिया,जिसकी वो हकदार


फिर भी तो हर रूप में,लुटा रही नित प्यार।
लुटा रही नित प्यार,काम घर का सब करती।
कठपुतली -सी नाच,नाच कर कभी न थकती।
भरा वक्ष में दूध,जिंदगी फिर भी खारी।
बना पुरुष हैवान,बड़ी बेबस है नारी।।


कुण्डलिया नंबर- 2
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नारी को कब है मिला,समता का अधिकार।
कभी कहा अबला उसे,कभी दिया दुत्कार।।
कभी दिया दुत्कार,न उसको गले लगाया।
कठपुतली -सा नित्य,गया है नाच नचाया।
जाग गयी है आज,बनी तलवार दुधारी।
अरे पुरुष नादान,नहीं नर से कम नारी।।



कुण्डलिया संख्या -3
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नारी को देवी कहा,दिया नहीं सम्मान।
क्यों समाज रक्खा बना,अब तक पुरुष प्रधान।।
अब तक पुरुष प्रधान,रहा नारी क्यों अबला।
करता अत्याचार ,नहीं अब तक भी बदला।
नाच -नाच कर नाच,बनी वनिता चिंगारी।
भारी पड़ती आज,सभी पुरुषों पर नारी।।



कुण्डलिया संख्या-4
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नारी का करता मुझे,सच मे विचलित चित्र।
क्यों कठपुतली है बनी,रमणी प्राण -पवित्र।।
रमणी प्राण -पवित्र,बनी  क्यों नर की दासी।
हाड़ -माँस की देह,हृदय है मथुरा काशी।
छलकें नयना 'नीर',बड़ी दिखती दुखियारी।।
मौका दो दिल खोल,गगन चूमेगी नारी।।


---स्नेहलता 'नीर'


रहें एक हम सब वतन🇮🇳 मूरख   इस   संसार  में , निर्विवेक  हम  लोग।


विधाः दोहा
छन्दः मात्रिक
शीर्षकः ✊रहें एक हम सब वतन🇮🇳
मूरख   इस   संसार  में , निर्विवेक  हम  लोग।
बहकें   कौमी   भावना , राष्ट्र   द्रोह     दुर्योग।।१।।
खाने  के  लाले  पड़े , बने  क्रान्ति  का  लाल।
भड़काते  निज  स्वार्थ  में , नेता चलते  चाल।।२।।
बने  लोग  कुछ  दहशती , बेचे   लाज ज़मीर।
जला रहे  जनता  वतन, तरुणायी    तकदीर।।३। 
आज़ादी के नाम पर , साध  रहे  निज स्वार्थ।
मानवता    सम्वेदना , भूले   सब     परमार्थ।।४।।
मातृभूमि  सबसे  अहम् , रक्षण   है  कर्तव्य।
सौ जीवन अर्पण उसे , स्वाभिमान ध्यातव्य।।५।।
मिले साथ सरकार हम , करें  राष्ट्र   मजबूत।
करें नाश दुश्मन वतन , जो  भी  देश  कपूत।।६।
मँहगाई   है  आसमां  , जनता   है    मज़बूर।
सजीं   चुनावी     दंगलें , राजनीति    दस्तूर।।७।।
गाली   दंगा   नफ़रतें , मेला   सजी   चुनाव।
जनमत  है   क्रेता  यहाँ , दे  नेता  हर  भाव।।८।
लोकतंत्र  रक्षक   यहाँ , चले  दाँव पर  दाँव।
लोक   लुभावन   तोहफे, बाँटे   पूर्व  चुनाव।।९।।
मिली जीत  चुनाव रण,  सत्ता  पा  सरताज।
भूलें    वादाएँ   सभी , जनता  की  आवाज।।१०।।
सत्ता पा  ऐय्याशियाँ ,  संचय  धन   भण्डार।
लूटे जनता  कोष को , दर्शन  हो       दुस्वार।।११।।
हो उदार इन्सानियत , नीति  प्रगति  हो ध्येय।
शिक्षा समरसता प्रकृति, नेता जनमन    गेय।।१२।।
धीर  वीर    गंभीर  हो , राष्ट्रभक्ति  अभिप्रेत।
लोकमान्य व्यक्तित्व नित ,  निर्णेता  उपवेत।।१३।।
सच्चाई  मन  में  बसे, कर्म  शील   आधार ।
तन मन धन अर्पित वतन, हों   नेता   तैयार।।१४।। 
देश    विरोधी   ताकतें , फैले    देश विदेश।
एक रहें हम सब वतन ,कवि निकुंज संदेश।।१५।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नयी दिल्ली


निधि मद्धेशिया कानपुर

 


कभी मन की सुन ली
कभी मन से सुन ली
सृजन के भाव सभी
कभी भावों की सुन ली।


निधि मद्धेशिया
कानपुर


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