डा0विद्यासागर मिश्र"सागर" सीतापुर/लखनऊ उ0प्र0

नारी सशक्तीकरण पर मेरा एक और छन्द।
कौन कहता है नारी अबला रही सदैव,
नारियों की शक्ति को है जग पहचानता।
चाहें लक्ष्मीबाई हो चाहें झलकारी बाई,
रानी दुर्गावाती को कौन नहीं जानता।
रानी पद्मा समान यहाँ पर नारियां है,
सारा विश्व नारियों के शौर्य को बखानता।
हाड़ा रानी के समान कोई हुआ ही नही है,
भारतीय नारियों का जग लोहा मानता ।।
रचनाकार 
डा0विद्यासागर मिश्र"सागर"
सीतापुर/लखनऊ
उ0प्र0


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक (स्वरचित) नयी दिल्ली


शीर्षकः 🇮🇳चलें करें मतदान हम🇮🇳
मनचाही  खुशियों  भरा , खिले कुसुम मुस्कान।
महापर्व   जनतंत्र   यह , सभी   करें    मतदान।। 
मत  केवल  अधिकार  नहीं , देना  भी  कर्तव्य। 
करें    सबल  जनतंत्र  को , संविधान  ध्यातव्य।। 
देशभक्ति   पर्याय   यह , समझें  निज  मतदान।
निर्माता   सरकार   का , दें    अपना    अवदान।।
सोच समझ मतदान निज,प्रतिनिधि करें चुनाव।
अवसर निज अधिकार का ,बिना किसी दुर्भाव।।
धीर   वीर    प्रेमी   वतन ,  हो   उदार   इन्सान।
ध्येय प्रगति सह शीलता , प्रतिनिधि  हो  ईमान।।
जन मन गण  का  पर्व  यह , लोकतंत्र का धर्म।
पाँच   वर्ष  में   एक बार ,  अधिकारी  सत्कर्म।। 
क्षेत्र  जाति  भाषा  धरम , नहीं   बँटे   मतदान।
करे   समुन्नत  राष्ट्र  जो ,  अमन  चैन  दे मान।।
फँसें   नहीं   झाँसागिरी  , नेताओं   की  चाल।
दान विवेकी तुला मत , हो  जनता   खुशहाल।।
करें    हर्ष   उत्साह   से , नया   देश   निर्माण।
दें  मत  राष्ट्र  सुपात्र को , करें  प्रजा कल्याण ।। 
चलें   करें  मतदान  हम , है  निकुंज  आह्वान।
राष्ट्रधर्म   सम्मान   निज , प्रजा वतन भगवान।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक (स्वरचित)
नयी दिल्ली


रतन राठौड़ मालवीय नगर, जयपुर।

:: अहसास ::
क्यों लगता है,
कभी-कभी...
कोई मुझे चाहता है,
कोई मुझ से,
प्यार करता है...
कोई मुझे अपना-सा
समझता है...
क्यों कोयल कूकी
दिल की...
क्यों बढ़ी धड़कन
दिल की...
न जाने क्यों
अहसास हुआ...
न जाने क्यों
आभास हुआ...
तुम हो
अगर कहीं...
तो आओ न
पल दो पल के लिए
पास पास
तेरे वज़ूद के लिये।


प्रतिभा प्रसाद कुमकुम

(007)          🙏🏻 *प्रतिभा प्रभाती* 🙏🏻
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क्षिति जल पावक गगन समीरा , ऐसे में क्या कहें कबीरा ।
अभिनंदन के अभिनंदन से गूंजा , पावन पुण्य धरा अधीरा।


आज प्रभाती अभिनंदन की , और हमारे सैनिक गण की ।
पावन पुण्य धरा अगम की  , और सनातन सत्य जन गण की।


आज धरा पर धर्म खिला है , नैतिकता ने कर्म किया है ।
सबको कोटि-कोटि वंदन है , भारत भाल अभिनंदन है ।


आज महि ने ओढ़ी चुनरिया , माँ गौरा आशीष मिला ।
गिरि तरुवर और ताल तलैया , सत्य सनातन प्यार खिला ।


वंदन है अभिनंदन है , भारत भाल पे चंदन है ।
आज प्रातः में सबको मेरा , कोटी कोटी अभिनंदन है ।।


 


🌹(सर्वाधिकार सुरक्षित स्वरचित)
      *प्रतिभा प्रसाद कुमकुम*
       दिनांक  7.2.2020......


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नूतन लाल साहू

बेटी की बिदाई
मत रो माता,क्यों रोती है
बेटी तो पराया धन होती है
चाहे धनी हो,चाहे हो निर्धन
वो तो अंगना का,तुलसी होती है
दुनिया के विधि को,विधि ने बनाई है
सच्चाई के राहो में,कांटे तो स्वाभाविक है
कहीं पर सुलह है,तो कहीं पर लड़ाई
हर धर,हर महल की यही है कहानी
मत रो माता,क्यों रोती है
बेटी तो पराया,धन होती है
किसी को शुली मिली है तो
किसी को मिली है रजाई
तो किसी को तो सिर्फ
सूखी रोटी ही मिली है
जीवन के हर मोड़ पर
संघर्ष में ही है भलाई
किसी को मिली है,मक्खन मलाई
मत रो माता,क्यों रोती है
बेटी तो पराया धन होती है
याद कर माता, तू भी तो बेटी है
दुल्हन बनकर,पराया घर आई है
कभी अपनी मुस्कुराहट से तो
कभी अपनी आंसुओ की धारा से
परिवार की बगिया को महकाई है
अपने बेटी की,सपनों को भुल मत जाना
साक्षात नहीं तो क्या हुआ
उनके सपनों में कभी कभी आना
अपने कलेजे के टुकड़े को
हर मुश्किल में राह दिखाना
झूठी शान की इस दुनिया में
सच्चाई से चलना सिखाना
मत रो माता, क्यों रोती है
बेटी तो पराया धन होती है
चाहे धनी हो,चाहे हो निर्धन
वो तो अंगना का तुलसी होती है
नूतन लाल साहू


कौशल महंत"कौशल"

,       *जीवन दर्शन भाग !!२३!!*


★★★
आता जब घर में कभी,
            कोई भी त्योहार।
खाता लड्डू माँग कर,
            दो के बदले चार।
दो के बदले चार,
           नहीं फिर भी मन भरता।
छुपकर करता खोज,
           किंतु माता से डरता।
कह कौशल करजोरि,
          सभी का मन सुख पाता।
दबे पाँव रह शांत,
         रसोई में जब आता।
★★★
मिलता बचपन का हमें,
            एक बार दिन चार।
मनुज जनम सुखधाम का,
           यह ही होता सार।
यह ही होता सार,
           नहीं कोई दुख पीड़ा।
रहकर हरपल मस्त,
           करे मनभावन क्रीड़ा।
कह कौशल करजोरि,
            सदा पुष्पों सम खिलता।
बचपन है अनमोल,
            दुबारा कब है मिलता?
★★★
पावन अमोल है अतुल,
           बचपन के कुछ वर्ष।
सोच समझकर देख लो,
           सिर्फ मिला था हर्ष।
सिर्फ मिला था हर्ष,
           वही बचपन था प्यारा।
मिले नहीं क्षण एक,
            लगा दो जो धन सारा।
कह कौशल करजोरि,
            समय था बहुत सुहावन।
बचपन का मनभाव,
           सदा होता है पावन।।
★★★


कौशल महंत"कौशल"
,


कवि शमशेर सिंह जलंधरा टेंपो हांसी ,  हिसार , हरियाणा ।

 


संघर्ष की गुत्थी ,
और उलझ जाती है ,
जब ,
सरलता से सफल हुआ व्यक्ति ,
देता है नसीहत ,
कड़े परिश्रमी , मेहनती इंसान को ,
कड़े परिश्रम की ।
और उसके शब्द , 
दर्शाते हैं ,
खुद को परिपक्व ,
जबकि ,
उसकी सफलता के पीछे ,
होता है ,
पुरखों की मेहनत का नतीजा ,
वरना ,
कड़े परिश्रम का अर्थ ,
शब्दों में नहीं ,
हकीकत में समझता वह भी ,
और मालूम होता ,
उसको भी ,
कि संघर्ष क्या होता है ।


,@9992318583@


कुमार🙏🏼कारनिक*  (छाल, रायगढ़, छग)


  मनहरण घनाक्षरी
         *प्रेम*
         
राहों में मिली  नजर,
  दिल हो गया  अधर,
    ये प्यार का है असर,
      दिल    मे   समाइये।


💗🌹


हो रही मन बोझिल,
  दिल   उथल  पुथल,
   हृदय   तल   मचल,
     खुशी   गीत  गाइये।


🌹❤


प्रेम करो शुद्ध मन,
  नाचे है  अंतर मन,
   साक्षी है नीलगगन
      प्रेम     बरसाइये।


💗🌷


मचे दिल में हिलोर,
  जैसे हवा  करे सोर,
   सागर क्षितिज ओर,
     प्यार के हो  जाइये।


            🙏🏼
::::::::::::::::::::::::::::::::


सुनील कुमार गुप्ता- सहारनपुर

कविता:-
       *"रीति -रिवाज"*
"रीति-रिवाज की बेड़ियों में,
साथी बंध कर -
रह गये हम।
परिवर्तन की दिशा में ,
साथी अब तो-
रूकेगे न कदम।
अच्छे रीति-रिवाजो को,
साथी लेकर चलेगे-
और निभायेगे हम।
रीति रिवाजो में ही छिपी,
गरिमा संबंधों की-
उन्हे बनाये रखेगे हम।
रह रीति रिवाज के पीछे ,
साथी छिपा सत्य-
जीवन में पहचानेगे हम।
रीति रिवाज की बेड़ियों में,
साथी बंध कर -
अब न रहेगे हम।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःःः          सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.abliq.in
ःःःःःःःःःःःःःःःःः         07-02-2020


निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी' गोमतीनगर ,लखनऊ

: गज़ल 


तमन्ना बन तुम्हारी मैं गुले गुलशन सी सजती हूँ
समझ पाओ तो प्रिय समझो मैं तुमसे प्यार करती हूँ 


अमावस से भरी राहें सजल करती नयन मेरे
मगर पूनम के चन्दा सी मैं तेरे साथ चलती हूं


कदम थक जायें पर मंज़िल न अपनी भूल जाना तुम अगर देखोगे पलकन से मैं पथ तेरा निरखती हूँ 


नहीं आसान है मुझको भुला पाना मेरे हमदम 
तुम्हारे दिल में देखो मैं ही धड़कन बन धड़कती हूँ 


मेरे पाँवों के काँटों की न करना फ़िक्र तुम ऐसे
मैं अब हर ज़ख्म अपनी ज़िंदगी का हँसकर सहती हूँ


अगर बोली लगे तीखी तो मन को मद्धम मत करना 
अगर देखोगे मुड़ कर तो सदा तेरी ही सुनती हूँ 


छलकती जा रही गागर भरी है जो ये जीवन की 
"निवी" हूँ मैं तुझे केवल तुझे ही दिल में रखती हूं      
         ....


निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
निवास : 4/ 56 ,विवेक खण्ड
            गोमतीनगर ,लखनऊ
मोबाइल नम्बर : 9415108476


मुरारि पचलंगिया

 


गीत
-----
कह देती हैं भीगी पलकें,
दिल  की  सारी  पीर ।।
~~~~~
जब से तुम इस घर में आई,
कभी  न  पाया  चैन ।
दिन कटता है  आहें  भरते,
रोते  कटती  रैन  ।।
देख  रही  मैं  चेहरा  तेरा,
बहुत अधिक गम्भीर ।
कह देती हैं  भीगी पलकें ... ...


चमका करता था यह चेहरा,
आज  नहीं  है  ओज ।
सब कुछ बता रहा है मुखड़ा,
क्या  करनी  है  खोज ।।
देख - देख  हालात  तुम्हारे,
मैं  हूँ  बहुत  अधीर ।
कह  देती हैं भीगी पलकें ... ...


बात मान तू सखी सयानी,
तज दे  ये घर  द्वार ।
ये जीवन अनमोल बहुत है,
कर  तू  इससे प्यार ।।
बदल चुकी है चाल समय की,
बदलेगी  तकदीर ।
कह देती है  भीगी पलकें ... ...
~~~~~~~~~
मुरारि पचलंगिया


लता प्रासर

*गुलबिया शुभरात्रि*


दिन खिले गुलाब जैसा होए रात गुलाबी 
कांटे जिनकी रक्षा करते देखा उनकी नवाबी
कोमल कोमल पंखुड़ियों सा जीवन धारा
चमक चमक मुखड़ा हुआ आफताबी!
*लता प्रासर*


राकेश कुमार निवास--डालटनगंज, झारखण्ड

    ग़ज़ल
एक छोटा ही सही घर-बार होना चाहिए।
सर छुपाने के लिए अधिकार होना चाहिए।।


बात बिगड़ी बन भी सकती है मगर ये शर्त है,
गलतियों का दिल से ही इकरार होना चाहिए।


बढ़ रही बीमारियाँ हैं हर तरफ अब देश में,
जल्द ही सब रोग का उपचार होना चाहिए।


ज़ेब देती ही नहीं हरगिज़ कभी भी दुश्मनी,
आदमी को आदमी से प्यार होना चाहिए।


काम करना है हमें बन्धुत्व का ही चारसू,
प्यार ही का हर तरफ संचार होना चाहिए।


दिल लगाने के लिए है शर्त बस राकेश यह,
आदमी हो जो मगर दिलदार होना चाहिए।।


 


राकेश कुमार
निवास--डालटनगंज, झारखण्ड
दूरभाष--9431555151
              ~~~


देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"

...............सरगोशिआं भी अब तो...............


सरगोशिआं  भी  अब  तो  कमाल  कर  रही  है।
आज   के  माहौल  में  ये  धमाल  कर  रही  है।।


जमाने  चले  गए  हैं  अब  सही रास्ते  चलने के;
गलत  रास्ते से सफलता बेमिसाल मिल रही है।।


सही  रास्ते  से तो  आजकल  मिलते  हैं  थपेड़े ;
सही लोगों को अब  समाज बेहाल  कर रही है।।


उलट  गए हैं  आजकल  दुनियां  के सारे तरीके;
परिस्थितियां सज्जनों को पाहमाल कर रही है।।


किसे  दोष   दें  हम  इन  परेशानियों  के  लिए ;
परेशानियां  ही अब  हमसे सवाल  कर रही है।।


हम तो  चले थे  राह में  अच्छे  इरादे  से  मगर ;
सरगोशिआं  ही  हमारा  बुरा हाल  कर रही है।।


फिर  कुछ तो उम्मीद बचा रखी हमने"आनंद" ;
कमसेकम उम्मीद तो  इस्तकबाल कर रही है।।


----------------- देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"


सन्दीप सरस-9140098712

✍ *बुजुर्गों की पीड़ा से सीधा संवाद-प्रयास कैसा है, प्रतिक्रिया अपेक्षित*✍
रोज रोज का झगड़ा झंझट ठीक नहीं,
मुन्ने की अम्मा! घर वापस लौट चलो। 


भले बहू की लाख हिकारत सह लेते,
बेटे की मजबूरी सही नहीं जाती।
जब से हम उसके करीब आए, तब से-
दोनों में यह दूरी, सही नहीं जाती।


बेटे को दुविधा में डालें, ठीक नहीं,
कष्ट उसे होगा, पर वापस लौट चलो।1।


जीवन में हमने सम्बन्ध बनाये कब,
अवसरवादी सुविधा के अनुपातों में।
हम रिश्तो की गर्माहट के आदी हैं,
लोग लगे हैं घातों में प्रतिघातों में।


अनचाहे रिश्तों को ढोना ठीक नहीं,
जीने का है अवसर, वापस लौट चलो।2।


गाँव गली की भाषा के हम विज्ञानी,
महानगर के अंकगणित से हार गए।
शून्य शून्य का हाय गुणनफल शून्य रहा,
जाने क्यों हम छोंड़ गाँव घर द्वार गए।


आज हमारा समय बदलते ही उनके,
बदल गए हैं तेवर, वापस लौट चलो।3।


🔴सन्दीप सरस-9140098712
~~~~~~~~~~~~~


एस के कपूर "श्री हंस" 6   पुष्कर एनक्लेव स्टेडियम रोड बरेली

क्या  है
यह जिन्दगी।


विधा । मुक्तक माला


1,,,,
 हर कदम गर्व है जिन्दगी।।
।।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।


हर  पल हर  कदम जैसे,
संघर्ष है  ये जिन्दगी।


कभी दुःख का  साया तो,
कभी हर्ष है जिन्दगी।।


धैर्य  से  तो  दर्द  भी  बन, 
जाता है  मानो  दवा।


जीतें हैं जो इस अंदाज़ से,
तो गर्व है ये जिन्दगी।।
2,,,,,
 जो याद रहे वह कहानी बनो।।
।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।।।।


बस   अपना  ही  अपना  नहीं
किसी और पर मेहरबानी बनो।


चले जो   साथ हर  किसी  के 
तुम ऐसी  कोई   रवानी  बनो।।


जीवन  तो  है  हर  पल   कुछ
नया  कर  दिखाने   का  नाम।


कोई भूल बिसरा  किस्सा नहीं
जो याद रहे  वो कहानी  बनो।।
3,,,,,,,
 सब ही एक जैसे इन्सान हैं।
।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।


सब की एक ही   तो  धरती
एक सा आसमान है।


शिरायों में  लिये  लाल  लहू
एक  जैसा  इंसान है।।


जब देखोगे प्रेम की नज़र से
हर  इक   इंसान  को।


सब में  दिखाई देगा   तुमको
ऊपरवाला भगवान है।।
4,,,,,
कुछ नाम रोशन करो दुनिया में।।
।।।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।


एक दिन तुम   कोई    बीता
हुआ  इतिहास बन जायोगे।


भूतकाल  गुम होकर तुम भी
बे  हिसाब    बन    जायोगे।।


यदि जिया जीवन स्नेह  प्रेम
सहयोग  और    मिलन   से।


बनोगे सबके  प्रिय तुम और
आदमी खास   बन जायोगे।।


5,,,,,,
 खुशियों से भरा जहान है
जिंदगी।।।।।मुक्तक।।।।


खुशियों  से   भरा  एक
पूरा जहान  है  जिंदगी।


प्रभु  से   मिला  तोहफा
बहुत महान  है  जिंदगी।।


मुश्किलों से  मत  घबरा
यही   बात   कहती   है।


जीना तो तुम  शुरू करो
बहुत आसान है जिंदगी।।
6,,,,,,
।।।आंतरिक शक्ति।।।।।।।। 
।।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।।।
मत  आंकों     किसी  को    कम ,
कि सबमें कुछ बात होती है।


भीतर छिपी प्रतिभा कीअनमोल,
  सी    सौगात     होती   है।।


जरुरत है तो  बस उसे पहचानने,
और फिर निखारने  की।


तराशने  के बाद  ही  तो  हीरे से,
मुलाकात    होती     है।।
7,,,,,,,,,
।। सफलता का सम्मान।।।।।।।।।।।।।।।।
।।।।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।


नसीबों  का   पिटारा   यूँ    ही
कभी खुलता नहीं है।


सफलता का सम्मान जीवन में
 यूँ ही घुलता नहीं है।।


बस कर्म  ही लिखता है  हाथ
की   लकीरें  हमारी ।


ऊँचा  हुऐ बिना  आसमाँ  भी
कभी झुकता नहीं है।।
8,,,,,
सत्य कभी मरता नहीं है।।।।
।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।।


सच  कभी    मरता    नहीं
हमेशा  महफूज़   होता है।


ढेर में दब कर  भी जैसे ये 
चिंगारी और फूस होता है।।


लाख छुपा ले कोई उसको
काल  कोठरी   के  भीतर।


सात  परदों के पीछे से भी
जिंदा   महसूस   होता  है।।
9,,,,,,,,,,,,
सत्य कभी मरता नहीं है।।।।
।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।।


सच  कभी    मरता    नहीं
हमेशा  महफूज़   होता है।


ढेर में दब कर  भी जैसे ये 
चिंगारी और फूस होता है।।


लाख छुपा ले कोई उसको
काल  कोठरी   के  भीतर।


सात  परदों के पीछे से भी
जिंदा   महसूस   होता  है।।
10,,,,,,,,,
दिया एक रोशनी का जला कर तो
देखो।।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।


बनो  तुम  उजाला  अंधेरों  को
तुम जरा    चुरा  कर देखो।


जरा   दिल  साफ  कर  दीवार
नफरत की गिरा कर देखो।।


लगा कर   तो  देखो   तुम  भी
कोई   एक  प्रेम  का पौधा।


बहुत सुकून मिलेगा दिया एक
प्रेम का जला कर तो देखो।।


रचयिता।।एस के कपूर श्री हंस
बरेली
मोबाइल*         9897071046
                    8218685464


सुनीता असीम

जब  छोड़के तू देह को शमशान जायगा।
तब साथ तेरे बस तेरा ईमान जायगा।
***
जब जान जा रही होगी तेरे शरीर से।
हर साथ में तेरे तेरा अरमान जायगा।
***
अपना है कौन कौन पराया यहाँ रहे।
ये अंतकाल में तू भी पहचान जायगा।
***
अच्छे करेगा कर्म जो संसार में यहाँ।
लेने उसे तो घर से  भी भगवान जायगा।
***
जो धर्म औ दया का यहाँ मोल जानता।
उसको जहाँ ये नाम से पहचान जायगा।
***
 सुनीता असीम
७/२/२०२०


सत्यप्रकाश पाण्डेय

सौंदर्य लालिमा लिए तन तुम्हारा
अनुपम अवर्चनीय रूप की धारा


लाज हया की लगती हो मारी सी
आनन उजास चन्द्र उजियारी सी


गढ़ा हो विधु ने मनोयोग से तुमको
तेरी रूप मोहिनी ने बांधा मुझको


शीतल धवल मयंक ज्योत्सना सी
कुसमित अधर लगो मनोरमा सी


करे है विमोहित लज्जा की लाली
शोभित करवलय अनंग मतवाली


मेरे हृदय में बसी है छवि तुम्हारी
माधुर्य प्रतिमा तुम पर रति वारी


लजे हिना देख के लोहित लाली
भावनाएं मेरी हुई प्रिय मतवाली


देख देख तुम्हें रजनीचर शरमाए
तेरा सौंदर्य तो जड़ चेतन को भाए


हसमुख गुलाब की कली मनोहर
बन जाओ सत्य की प्रिय धरोहर।।



सत्यप्रकाश पाण्डे


देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"

लघु कथा:-


.........आवश्यकता को वरीयता.........


    दो मित्र बातें करते जा रहे थे।अचानक सामने एक घायल पक्षी आकर गिरा।एक ने उस पक्षी को देखकर उठा लिया।दूसरा झल्लाने लगा कि इतने दिनों बाद हमदोनों इकट्ठे हुए,अपनी सुख-दुख की बातें एक-दूसरे को सुनाने के लिए और तुम इन सब बातों में मज़ा किरकिरा कर दोगे।मित्र ने उसकी बात को तवज्जो नही दी।पक्षी को दुलराने लगा,घायल स्थान को साफ किया और अपने रुमाल से ज़ख्म पर पट्टी बांध दी।पक्षी अब बहुत राहत महसूस कर रहा था।धीरे-धीरे चलने लगा और कृतज्ञता की भाव से पहले मित्र को देखते हुए धीरे-धीरे उड़ गया।दूसरे मित्र की आँखें खुली और उसने माना कि आवश्यकता को वरीयता दी जानी चाहिए।


-------------देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"


निशा"अतुल्य"

विषय          दरख़्त
दिनाँक        7/2 /2020



सूखने लगा है घर के सामने का वो दरख़्त
जिस की डाली पर बहुत से रिश्ते बैठे हैं
मेरे बचपन की यादों के संगी साथी 
वो उसकी छाया में गुड्डे की बारात का रुकना
गुड़िया को सजा बैठना दरख़्त की लकड़ियों से सजे मंडप में।
कितना कुछ संजो रखा है इस सूखे से दरख़्त ने खुद में
मेरी यादों का हर वो मंजर जो मेरे हंसने रोने का है।
फूटेंगी कोंपले इस पर मेरी यादों की बारात के मानिंद
मेरे यक़ीन की खाद और आँसुओं का पानी 
देगा पुनर्जन्म मेरे बचपन के साथी को। 
नित निहारतीं हूँ यादों के झरोखों से उसको
वो भी खिला खिला सा आ जाता है ख़्वाबों में मेरे
और दे जाता है यकीन खुद के जिंदा होने का।
मिल जाती है मुझे भी एक वजह मुस्कुराने की
मेरी यादों का वो दरख़्त नही सूख सकता कभी 
मुझे हो चला है ये यक़ीन क्योंकि उस पर टँगी है मेरे बचपन की यादें
जो जिंदा है मुझमें अभी जो जिंदा है मुझमें अभी।


स्वरचित 
निशा"अतुल्य"


राजेंद्र रायपुरी।

एक ग़ज़ल, आपकी नज़र - - 


बहाने   बनाकर  न  दिल  को  चुराओ,
कली  हूँ  न भँवरा  सुनो बन के आओ।


रखोगे  कहाँ  तुम  चुरा  मेरे दिल  को,
जहां  में  जगह  कोई  हो  तो बताओ।


है फूलों  से  नाज़ुक सुनो मेरा दिल ये,
समझ   हीरे-मोती  न  थैली  मँगाओ।


सजाया-सँवारा  है  दिल  को जतन से,
मिला  दोगे   मिट्टी  न  इसको चुराओ।


बने हो  जो आशिक़  तो  रस्में निभाओ,
मेरे दिल को भाए वो दिल तो दिखाओ।


न  शीशे  की  पत्थर  से  यारी लगाओ,
निभी   ऐसी   यारी   कहाँ   है  बताओ।


शमा   बन  जलूँगी   ज़माने  में   मैं  तो,
अगर  जल  सकोगे  तभी  पास  आओ।


                ।।राजेंद्र रायपुरी।।


रीतु देवी"प्रज्ञा"         दरभंगा, बिहार

विषय:-बचपन
दिनांक:-07-02-2020
बचपन के दिन सुहाने


बचपन के थे दिन सुहाने,
गीत गाते थे हम मस्ताने,
भेदभाव का नहीं था नामोनिशान 
मोहमाया से थे हम अनजाने।
चंदा मामा लगते प्यारे
नित्य शाम को बाट निहारे
मन भाती थी पूनम रौशनी
रात्रि भी खेलते भाई-बहन सारे।
झट चढ जाते पेड़ों पर,
नजर रहते मीठी सेबों पर,
अपना-पराया का नहीं था ज्ञान
विश्वास करते श्रेष्ठजनों के नेहों पर।


हम भींगा करते छमछम बूंद में,
हम खोए रहते भीनीभीनी सुगंध में,
चंचलता रहता तन मे हरदम
परियों को देखा करते गहरी नींद में।
बचपन के थे दिन सुहाने ,
हर गम से थे बेगाने ,
मौज ही मौज था जीवन में
माँ की आँचल तले थे खजाने 
           रीतु देवी"प्रज्ञा"
        दरभंगा, बिहार
    स्वरचित एवं मौलिक


प्रखर दीक्षित* *फर्रुखाबाद

जयति भारती
*************


जिन्हें न प्रेम माटी से , उन्हें बेजान लिखता हूँ।
मैं संकल्पों में डुबो करके, अरमान लिखता हूँ।।
परहित में  जिया जीवन,वही तो सत्यत: जीवन,
भारती को प्रणति लिखकर हिंदुस्तान लिखता हूँ।।


ये उर्वर भूमि पराक्रम की, लिखी बलिदान गाथाऐं।
व्याधियाँ रास्ता देतीं नमन करती हैं बाधाऐं।।
तुंग ऊर्ध्व हो किंचित या सागर हो अचल गहरा,
विजय या वीरगति अंगी, स्वयं के कर्म उपमाऐं।।


*प्रखर दीक्षित*
*फर्रुखाबाद*


देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"

शुभ प्रातः -


निगाहों में थी जिस नगीने की ज़ुस्तज़ु।
बन गयी है वो ही मेरे  दिल की आरज़ू।


-----देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"


एस के कपूर श्री हंस* *बरेली

*विविध हाइकु।।।।।।।।*


हीर ओ रांझा
सांझा जीना हमेशा
मरना सांझा


वजन   दार
हमेशा कायदे का
बात का सार


भूखा द्वार पे
खाली पेट न जाये
तू  ये देख ले


बिन संघर्ष
उत्थान होता नहीं
न ही उत्कर्ष


जख्म न खोल
नमक    शहर    में
मीठा ही बोल



बिन  विचार
बने न ही व्यक्तिव
न ही आधार


*रचयिता।।एस के कपूर*
*श्री हंस।।।।।।।।बरेली*
मो 9897071046।।
8218685464।।।।।


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