डॉ0 नीलम अजमेर        *जाने दो न* ********************* जरा नजर भर हमको देखो

डॉ0 नीलम अजमेर


       *जाने दो न*
*********************
जरा नजर भर हमको देखो
दुनिया क्या कहेगी *जाने दो न*


इसकी उसकी किसकी बातें
क्यों लेकर बैठ गये
कुछ पल पास आकर बैठो अपनी भी दो बातें कर लो 


कोई भी सुन लेगा सुन लेने दो
क्या करेगा सुन कर बातें
*जाने दो न*


ये तो हैं जग वाले, कुछ तो बोलेंगे ही
कितने-कितने मुख हैं, कुछ तो मुख खोलेंगे ही
खुल जाएं तो खुल जाने दो


किस-किस का मुँह बंद करोगे
ज़हर भी गर उगलें तो उगलने दो
*जाने दो न* 


प्यार गर करते हो तो 
फिर किससे तुम डरते 
हो
प्यार करने वाले तो सरेआम मिला करते हैं


फूल प्यार के हर युग में ही खिलकर मुर्झाए हैं
मुर्झाने से पहले तो खिल जाने दो क्यों डरते हो
*जाने दो न*


    डा.नीलम


मधु शंखधर 'स्वतंत्र' प्रयागराज अवधी लोकगीत नवल गोरी ना मेलवा कै झूलवा झूलै चाहै गोरिया।

 


मधु शंखधर 'स्वतंत्र' प्रयागराज


अवधी लोकगीत नवल गोरी ना

मेलवा कै झूलवा झूलै चाहै गोरिया।
नवल गोरी ना.....
हो नवल गोरी ना.....।।2।।


सासु जब रोकै बोलै, कहाँ जाबू दुलहि।
बोल रही गोरिया, तू हऊ बड़ी बुढ़िया।
हमही करब ना....
रात दिन तोहार सेवावा..हमही करब ना...
हो नवल गोरी ना...........
मेलवा के झूलवा पै झूलै चाहै गोरिया...........।।


जेठनी बोलै बोलिया , काम कर गोतनी।
बोल रही गोरिया, तू हऊ बड़ी छलिया,
हमही करब ना....
सब काम तोहरे सथवा..हमही करब ना।
हो नवल गोरी ना.....................।
मेलवा के झूलवा पे झूलै चाहे गोरिया...................।।


ननदी कहै भाभी हो, हमहू चलब ना।
बोल रही गोरिया तू हऊ बड़ी चपला।
हमही करब ना........
तोहार ब्याह बड़े घर ना....हमही करब ना।
हो नवल गोरी ना........
मेलवा के झूलवा पै झूलै चाहे गोरिया...................।।


जात- जात मेलवा कहै लागे देवरा,हमहू साथे ना।
बोल रही गोरिया, तू हय सबसे लहुरा,
हमही भेजब ना..........
तोहै कॉलेज के डगरिया, हमही भेजब ना।।
हो नवल गोरी ना............
मेलवा के झूलवा पे झूलै चाहै गोरिया.....................।।


चल दिही गोरिया सजन साथे मेलवा,
हो झूल रही ना,
कह रही गोरिया, तू हय मोरे जियरा।
साथ झूलब ना.....हम साथ साथ झूलवा...सदैव झूलब ना।
हो नवल गोरी ना....।
मेलवा के झूलवा पे झूल रही झूलना ।
पिया संग ना....हो नवल गोरी ना।।
*मधु शंखधर 'स्वतंत्र'*
*प्रयागराज*
*04.02.20*


कवि✍️ डॉ.राम कुमार "निकुंज" नई दिल्ली विधाः दोहा छन्दः मात्रिक शीर्षकः🌹 कर स्वागत मधुमास🌹

कवि✍️ डॉ.राम कुमार "निकुंज"
नई दिल्ली



विधाः दोहा
छन्दः मात्रिक
शीर्षकः🌹 कर स्वागत मधुमास🌹
कुसमित   मंजर  माधवी , मुदित  रसाल   सुहास ।  
कलसी  प्रिया  हिली  डुली , कूक  पिक  उल्लास।।१।।
नवयौवन   सुष्मित  प्रकृति,सजा धजा  ऋतुराज ।
खिली  कुमुद  पा  चन्द्रिका , चाँद  प्रीत   सरताज।।२।।  
मधुशाला    मधुपान  कर , मतवाला     अलिवृन्द।
खिली  कुसुम  सम्पुट कली , पा   यौवन अरविन्द।।३।।
नवकिसलय   अति   कोमला ,माधवी  लता लवंग।
बहे   मन्द   शीतल  समीर , प्रीत   मिलन   नवरंग।।४।।
नवप्रभात की  अरुणिमा  , कर  स्वागत  मधुमास।
दिव्य    मनोरम  चारुतम , नव जीवन  अभिलास।।५।।
खगमृगद्विज   कलरव मधुर , सिंहनाद  अभिराम।
लखि वसन्त गजगामिनी,मादक  रति    सुखधाम।।६।।
नवजीवन     उल्लास   बन , सरसों   पीत   बहार।
मंद   मंद     बहता    पवन , वासन्तिक    उपहार।।७।। 
नयना    निर्झरनी    बनी , श्रावण   प्रीत    वियोग। 
देख   चकोरी    मिलन  को , सिसक  रहा  संयोग।।८।।
वासन्तिक   इस  मधुरिमा , मीत   प्रीत     शृंगार। 
नव   ख्वाबों  से  फिर   सजे , टूटे  दिल के   तार।।९।।   
मन्द  मन्द   बहती    हवा , सहलाती    हर   घाव।
कोयल  बन मृदु   रागिनी , प्रीत  मिलन   सम्भाव।।१०।।
है   वसन्त  नव किरण  बन ,मन मादक  रति राग।
लता    लवंगी   प्रियतमा , मचल  सजन  अनुराग।।११।।
अति    विह्वल  मृदुभाषिणी , सज  सोलह शृङ्गार।
दूजे    सम    मुस्कान   से , साजन    दे    उपहार।।१२।।
मृगनयनी    सम   चंचला , कोमल   गात्र   सुवास।
आतुर   हृदया   मानिनी , प्रीत   मिलन अभिलास।।१३।।
मौसम     बना    लुभावना , मीठी    मीठी    शीत।
राहत    देती   रविकिरण ,   प्रेम   युगल    उद्गीत ।।१४।।
नवपादप   नवपल्लवित ,सुरभित   पुष्पित   फूल।
बन   विहार  नव प्रीत   का , वासन्ती     अनुकूल।।१५।।
मन   पावन   गंगा    समा , कामदेव   सम    रूप।
विनत शील गुण कर्म चित , वासन्तिक  सम  धूप।।१६।।
त्याग सहज समधुर प्रकृति, सत्य पूत   प्रिय भाष। 
आनंदक   ऋतुराज सम , पूर्ण  मनुज   अभिलाष।।१७।। 
चहक व्योम उड़ता विहग,उन्मुक्त चाह   सुखधाम।
सरसिज सम कुसुमित मनुज,आह्लादक अभिराम।।१८।।
नवजीवन   उल्लास   बन , सरसों    पीत    बहार।
मंद   मंद     बहता   पवन , वासन्तिक     उपहार।।१९।।
अभिनंदन   ऋतुराज  का ,  करे   चराचर   आज ।  
रखें    स्वच्छ    पर्यावरण ,  समरसता     आगाज़।। २०
रंजित   नित   चितवन निकुंज , इन्द्रधनुष  सतरंग।
तुषार   हार   मोती   समा , चहके    प्रीत     उमंग।।२१।।


कवि✍️ डॉ.राम कुमार "निकुंज"
रचनाः मौलिक (स्वरचित)
नई दिल्ली


संदीप कुमार विश्नोई दुतारांवाली अबोहर पंजाब चतुष्पदी पुष्प खिले नव कुंजन में मकरंद समीर निहार चली। 

 


संदीप कुमार विश्नोई
दुतारांवाली अबोहर पंजाब
चतुष्पदी


पुष्प खिले नव कुंजन में मकरंद समीर निहार चली। 


मंजुल कोमल सी दुबली यह झूम रही कचनार कली।


कोकिल बोल रही वन में ऋतुराज पधार रहे धरती-


भृंग के दल घूम रहे अटवी छुप देख रही उनको तितली। 


स्वरचित
संदीप कुमार विश्नोई
दुतारांवाली अबोहर पंजाब


एस के कपूर* *श्री हंस।बरेली विविध हाइकु।

एस के कपूर*
*श्री हंस।बरेली


विविध हाइकु।


ये मुलाकात
करती शक  दूर
बनती बात


दिन ओ रात
अनवरत  जारी
यह सौगात


ये वफादार
चेहरे पे  चेहरा
हैं अदाकार


हम सफर
एक साथ मंजिल
एक डगर


ये जरूरत
हर नाच नचाती
सही गलत


राह  के रोडे
साहस   भरपूर
जीवन दौड़े


*रचयिता।।एस के कपूर*
*श्री हंस।बरेली*
मोबाइल 9897071046
8218685464


जय जिनेन्द्र देव की क्या था भारत .. विधा : गीत कहाँ से हम चले थे,

जय जिनेन्द्र देव की


क्या था भारत ..
विधा : गीत


कहाँ से हम चले थे,
कहाँ तक आ पहुंचे।
सभी की मेहनत ने,
दिखाया था जोश अपना।
तभी तो हम भारत को,
इतना विकसित कर सके।
पिन से लेकर एरोप्लेन,
अब हम बनाने जो लगे।।


कड़े लगन और परिश्रम,
के द्वारा ये हुआ है।
तभी तो भारत को,
दुनियां में स्थापित कर सके।
हमें उन विध्दमानो और,
वैज्ञानिकों के योगदानों को।
कभी भी भूल नहीं सकते,
उन किये गये कामों को।।


पर अब हम फिर से,
वही पर पहुँच रहे है।
जहाँ इंसानों और जानवरों में,
कोई अंतर नहीं दिखता।
पढ़े लिखे और बुध्दिजीवी भी,
वही सब काम कर रहे।
जो उन से बेहतर अनपढ़,
हमारे देश में कर सकते।।


कहाँ से हम चले थे, 
कहाँ तक आ पहुंच है।
सारी मेहनत और लगन का, 
अब बुरा हाल हो गया।
यदि ऐसा ही चलता रहा,
हमारे अपने देश में।
तो हम इंसानियत की,
सारी मर्यादाओ भूल जाएंगे।
और फिर इंसान ही इंसान को, 
बड़े आसानी से खा जाएगा।।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
04/02/2020


सुनीता असीम सूरत तेरी जो देखी तो चन्दा मचल गया।

सुनीता असीम


सूरत तेरी जो देखी तो चन्दा मचल गया।
देखा जो ताब हुस्न का सूरज पिघल गया।
***
जिस प्यार का ज़बाब मुझे मिल नहीं सका ।
परिणाम जान प्यार का मन ही बदल गया।
***
कैसे कहूं मुझे है मुहब्बत तो आपसे।
बस आपके मिजाज पे ये दिल फिसल गया।
***
इस इश्क की किताब का मजमून मौन था।
पर बोलते ही वक्त भी कितना निकल गया।
***
मजनूं मरा व लैला मरी प्रेम के लिए।
मरने के भी ख्याल से दिल में दहल गया।
***
सुनीता असीम
४/२/२०२०


एस के कपूर श्री* *हंस।।।।।बरेली सबको मुंह दिखाना प्रभु के*

एस के कपूर श्री*
*हंस।।।।।बरेली सबको मुंह दिखाना प्रभु के*
*दरबार में।।।।।।।।।।।।।।।।*
*मुक्तक।।।।।।।।।।।।।।।।।।।*


प्रेम की  दूकान   चलाते हैं,
नफरत के बाज़ार में।


लाभ  कम  शान्ति  ज्यादा,
है  इस  कारोबार  में।।


जितनी भी  जिन्दगी    बस ,
कट  रही  है सुकून  से।


हो न    बुरा   किसी  का भी,
जाना प्रभु के दरबार में।।
*रचयिता।।।एस के कपूर श्री*
*हंस।।।।।बरेली।।।।।।।।।।।*
मोब  9897071046  ।।।
8218685464  ।।।।।।।।


एस के कपूर श्री हंस* *बरेली* दिया एक रोशनी का जला कर तो*

एस के कपूर श्री हंस*
*बरेली*


दिया एक रोशनी का जला कर तो*
*देखो।।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।*


बनो  तुम  उजाला  अंधेरों  को
तुम जरा    चुरा  कर देखो।


जरा   दिल  साफ  कर  दीवार
नफरत की गिरा कर देखो।।


लगा कर   तो  देखो   तुम  भी
कोई   एक  प्रेम  का पौधा।


बहुत सुकून मिलेगा दिया एक
प्रेम का जला कर तो देखो।।


*रचयिता।।एस के कपूर श्री हंस*
*बरेली*
*मोबाइल*         9897071046
                    8218685464


राजेंद्र रायपुरी गणपति वंदना  जय  गणेश, जय  गणपति  देवा।

राजेंद्र रायपुरी


गणपति वंदना 


जय  गणेश, जय  गणपति  देवा।
भक्त   करें   सब   तुम्हरी   सेवा।


जय  गणेश, गज-बदन, विनायक।
जय गणपति,जय,जय गणनायक।


रिद्धि - सिद्धि   के  तुम  हो  दाता।
जो   ध्यावे,  कभी  दुख  न  पाता।


हे   गिरिजा   सुत,   हे    लम्बोदर।
करहु  कृपा  प्रभु  तुम हम सब पर।


भक्त   खड़े   सब    द्वार   तुम्हारे।
हाथ   जोड़ि   विनवत   हैं    सारे।


पड़े    गजानन,     शरण     तुम्हारे।
पुरवहु     मनसा     सभी     हमारे।


                   (राजेंद्र रायपुरी)


सत्यप्रकाश पाण्डेय अक्षत है न सुमन है न पूजा की थाली हैफ प

सत्यप्रकाश पाण्डेय


अक्षत है न सुमन है न पूजा की थाली है
कुमकुम है न केशर ये हाथ भी खाली हैं


नहीं दीपक न स्नेह नहीं कोई मंत्र मैं जानूँ
न अर्चन विधि कोई तुम्हें कैसे मैं पहचानूँ


करूँ अभिषेक मैं कैसे तुम्हें कैसे मनाऊँ
न ज्ञान न बुद्धि कैसे गुण तुम्हारे मैं गाऊं


है भावनाओं का जल उससे स्नान कराऊँ
करूँ श्रद्धा सुमन अर्पित और गान मैं गाऊं


तुम ठाकुर हो मेरे ठकुरानी वृजकिशोरी है
नहीं कोई मेरा श्री कृष्ण और राधे मोरी हैं।


युगलछवि को नमन💐💐💐💐💐🙏🙏🙏🙏🙏


सत्यप्रकाश पाण्डेय


निशा"अतुल्य" देहरादून जाने दो ना

निशा"अतुल्य"
देहरादून


जाने दो ना
दिनाँक       4 /2 /2020


बीती कैसे पिछली रातें, जाने दो ना
आओ बैठें करेंगे बाते,जाने दो ना
कुछ मैं बोलूं कुछ तुम कहना
बीत जाएंगी गम की रातें,जाने दो ना।


साथ चले तो सरल हो राहें
हाथ पकड़ लो, जाने दो ना ।


गम तो हर सू फैला ही है 
बात करें क्या उसकी बोलो,जाने दो ना।


मिलें हमें जो दो पल फ़ुर्सत के
क्यों खो दें हम उनको बोलो,जाने दो ना ।


हम तुम दोनों आज मिलें है सदियां बीती
करेंगे मिलकर ढ़ेर सी बातें,जाने दो ना


बीती बातें आज बिसारे गले मिलें हम
ना छोड़े हम साथ ये अपना जाने दो ना।


स्वरचित 
निशा"अतुल्य"


स्नेहलता'नीर गीत बेबस व्याकुल द्वार खड़ी मैं

स्नेहलता'नीर


गीत


 


बेबस व्याकुल द्वार खड़ी मैं जाने कब से राह निहारूँ।
कब आओगे प्रियतम प्यारे,निशि-वासर नित नाम पुकारूँ।
1
प्रीति- रीति इस जग की झूठी,देख -देख कर कल तक  रोई।
नैनों में छवि बसी तुम्हारी,नहीं सुहाता है अब कोई।


मोहनि- मूरत श्यामल- सूरत,निरख कोटि उर तुम पर वारूँ।
कब आओगे प्रियतम प्यारे,निशि-वासर नित नाम पुकारूँ।
2
दर्शन के अभिलाषी नैना,इन नैनन की प्यास बुझाओ।
हाथ थाम कर मेरा कान्हा,भव सागर से पार लगाओ।


निरख निरख कर दर्पण मोहन,खुद को मैं दिन -रात सँवारूँ।
कब आओगे प्रियतम प्यारे,निशि-वासर नित नाम पुकारूँ।
3
चंपा की कलियाँ चुन- चुन कर,रोज जतन कर सेज सजाती।
हलवा पूरी खीर बनाती,माखन रखती, दही जमाती।


आओ गिरिधर भोग लगाने,अश्रु धार से चरण पखारुँ।
कब आओगे प्रियतम प्यारे,निशि-वासर नित नाम पुकारूँ।
4
रँगी तुम्हारे ही रँग माधव,लोग कहें पागल दीवानी।
हँसती है मुझ पर ये दुनिया,तड़प नहीं अन्तस् की जानी।


पथराये हैं नयन 'नीर' के,बोलो धीरज कितना धारूँ।
कब आओगे प्रियतम प्यारे,निशि-वासर नित नाम पुकारूँ।


'


सुनीता असीम तेरे मेरे प्यार का कैसा फ़साना हो गया।

सुनीता असीम


तेरे मेरे प्यार का कैसा फ़साना हो गया।
रोज मिलने के लिए जाना बहाना हो गया।
***
कह रहा है आदमी खुद को मगर बनता नहीं।
कर जमाने की बुराई समझा सयाना हो गया।
***
वक्त कैसा आ गया मां-बाप की इज्जत नहीं।
रोज उनको बस रुला नजरें चुराना हो गया।
***
वो कभी रोता कभी हसता दिखाने के लिए।
किस तरह का आज ये तो मुस्कराना हो गया।
***
इस तरह का प्यार करते लोग सारे आजकल।
वस्ल की इच्छा जताना दिल लगाना हो गया।
***
सुनीता असीम
३/२/२०२०


देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी" चलो मितवा..........

.- देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"


चलो मितवा..........


चलो मितवा , कहीं  दूर चलें।
सब छोड़कर, कहीं दूर चलें।।


अपने  सभी  हो  गए बेगाने ;
इन्हें छोड़कर ,कहीं दूर चलें।।


अब बेगाने  को बनाएं अपने;
अपने मुड़कर,कहीं दूर चलें।।


जिन्हें अपना  हमदर्द  समझा;
वो गए मुकर , कहीं दूर चलें।।


मर जाएंगे,दगाबाजी न करेंगे;
ऐसे छोड़कर , कहीं दूर चलें।।


देश के  गद्दारों से  रहें  सतर्क ;
गद्दार छोड़कर,कहीं दूर चलें।।


अपना वजूद न मिटे"आनंद" ;
वजूद रखकर ,कहीं दूर चलें।।


- देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"


अखण्ड प्रकाश कानपुर पत्तों को नोचते तो बहुत दिन गुज़र गये।

 


अखण्ड प्रकाश


कानपुर


पत्तों को नोचते तो बहुत दिन गुज़र गये।
जड़ ही उखाड़ दो तो जवां बात कुछ बने।
ये आंख आज खून में पानी है देखती।
तुम लो कसम जवानी की तो बात कुछ बने।।


वो इंकलाबी नारे जोश वतन परस्ती।
काफी दिनों से ये कोई किस्से नहीं सुने।।
कुरवान हुए एक जमाने में सूरमा। अब तुम मरो तो एक कहानी नयी बने।।


तालाब था कुछ कमल थे अब काई है लगी।
बदला नहीं गया यहां पानी जरा सुने।।
साथी तुम्हारी आज जरूरत है देश को।
आया समय कि आंख तुम्हारी ज़रा तने।।


गांधी की अहिंसा हो या आजाद की हिंसा।
सत्याग्रह करो या दुनाली यहां तने।।
बदलाव की बयार में आंधी सी चले अब।
ताण्डव करें नटराज भवानी ज़रा नचें।।


मुकेश सोनी सार्थक बुद्धेश्वर रोड़ रतलाम कविता गर्द गर्द से लिपटे शीशे जैसा


मुकेश सोनी सार्थक
बुद्धेश्वर रोड़ रतलाम
मो.9752052608
कविता
गर्द
गर्द से लिपटे शीशे जैसा
मेरा जीवन जीने को
अनजाना कोई चेहरा
गर्द हटा कर आँचल से झाक रहा है भीतर को
मन की सुनी गलियों में फिर मेलो की गन्ध मिली
फिर चाहत की खुशबू मात कर रही चंदन को
फिर भीगी मिट्टी की खुशबू अलसाये पेड़ो की छाँव को
याद दिला कर चली गई बारिश की कागज की नाव को
उन राहो को तकता रहता जिनका कोई पता नही
उस खत को पढ़ लेता हूँ जो
उसने अब तक लिखा नही
अँखियों का पैगाम मिला है
फिर अँखियों के नाम को
मुकेश सोनी सार्थक


श्रीमती शशि मित्तल बतौली सरगुजा (३६गढ़) सपने कविता

 


श्रीमती शशि मित्तल
बतौली सरगुजा (३६गढ़)
सपने
मैने भी बोए थे
कुछ सपने सलोने
जीवन के ठोस धरातल पे
नेह- स्नेह के जल से सींचा
प्यार रुपी खाद से पोषा 
आज बना वो वटवृक्ष
बाहें फैलाए मेरे
उतर आया चौबारे
पुलकित होगा 
वह भी अब तो
खुशियों की 
सौगात लिए
हर डाल-डाल
पात -पात में
झलक रहा संस्कार 
स्वप्न हुआ साकार
लेने लगा है आकार!
इस वसुधा की माटी पे
मैने भी......
सपनों का संसार अनोखा
ख़्वाबों का नहीं लेखा-जोखा
सपने कभी होते पूरे
कभी रह जाते अधूरे
नेक फरिश्तों से 
करती हूँ आशा
पूरी करना मेरी 
अभिलाषा....
परिवार बनें संस्कारवान
समाज़  का  हो  उत्थान
निश्छल बनो,न हो खींचतान
ऐसा  हो  हमारा  हिंदुस्तान !!


प्रिया सिंह लखनऊ उसके हिस्से की मैं हक में दुआएं मांग लाती हूँ 

प्रिया सिंह लखनऊ


उसके हिस्से की मैं हक में दुआएं मांग लाती हूँ 
हो तैनात काल तो मैं हक में बलाएँ मांग लाती हूँ  


बेसबर जिन्दगी बस रोज बदलती रहती है प्रिया 
मैं उस रब से अब क्या क्या बताएं मांग लाती हूँ 


वो राह जिसमें हमसफ़र कोई नहीं होता शायद 
ऊपर वाले से वहाँ उसकी सदाएं मांग लाती हूँ 


गुस्ताखी कर ली तुझसे अब मोहब्बत कर के तो
तेरे दामन में सिमटी सारी खताएं मांग लाती हूँ 


वो अंदाज फरेबी मेरे मालिक की अदा बन गई 
जरा उस रब से अपने लिए वफाएं मांग लाती हूँ 


बहुत से तौर बाकी हैं मेरे अंदरखाने में यकीनन 
दफन करने खुदी को लहद से अदाएं मांग लाती हूँ 



Priya singh


एस के कपूर श्री हंस,  बरेली जीवन अर्थ मर्म।।विविध मुक्तक

एस के कपूर श्री हंस,   06,
पुष्कर एनक्लेव, स्टेडियम रोड,
बरेली,243005(ऊ प)
कविता
जीवन अर्थ मर्म।।विविध मुक्तक।।
1,,,,
मनुष्य में भी ईश्वर का वास होता है।
।।।।।।।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।।।
जिस दिन इंसान  को इंसान में
इंसान  नज़र आयेगा।


दूसरे  के  मान   में   ही  अपना
सम्मान नज़र आयेगा।।


जब समझ लेगा मनुष्य कि सब 
हैं एक ईश्वर की संतानें।


आदमी   को आदमी  में  ही तब
भगवान नज़र आयेगा।।


*रचयिता।।।।।एस के कपूर श्री हंस
*बरेली।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
मोब  9897071046।।।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।।।
2,,,,,,,
 जो याद रहे वह कहानी बनो।।
।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।।।।


बस   अपना  ही  अपना  नहीं
किसी और पर मेहरबानी बनो।


चले जो   साथ हर  किसी  के 
तुम ऐसी  कोई   रवानी  बनो।।


जीवन  तो  है  हर  पल   कुछ
नया  कर  दिखाने   का  नाम।


कोई भूल बिसरा  किस्सा नहीं
जो याद रहे  वो कहानी  बनो।।


रचयिता।।।।एस के कपूर श्री हंस
बरेली।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
मोब   9897071046।।।।।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।।।।।
3,,,,,,,,
 जीवन की आखिरी।।।।।शाम
।।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।।।
न जाने कब जीवन की
आखरी शाम आ जाये।


वह  अंतिम  दिन बुलावा
जाने का पैगाम आ जाये।।


सबसे  बना  कर रखें हम
दिल  की  नेक नियत से।


जाने  किसी की दुआ कब
जिंदगी के काम आ जाये।।


रचयिता।।।।।एस के कपूर
श्री हंस।।।।।बरेली।।।।।।।
मोब।।।   9897071046।।।
8218685464।।।।।।।।।।।।
4,,,,,,,,,,
 बस प्रेम का नाम मिले तुमको
।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।।।।।


जिस  गली से  भी  गुज़रो बस
 मुस्कराता  सलाम हो  तुमको।


किसी की मदद तुम कर सको
बस  यही  पैगाम  हो  तुमको।।


दुआयों का लेन देन हो तुम्हारा
बस  दिल  की   गहराइयों  से।


प्रभु से करो    ये  गुज़ारिश कि
बस  यही  काम   हो   तुमको।।


रचयिता ।।।।एस के कपूर श्री
हंस।।।।।।।बरेली।।।।।।।।।।।
मोब  9897071046।।।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।।


निशा"अतुल्य" *पत्थर* पत्थरों का भी अपना अपना नसीब होता है 

 


निशा"अतुल्य"
*पत्थर*


पत्थरों का भी अपना अपना नसीब होता है 
कोई खाता ठोकर कोई भगवान बन जाता है ।
मन की भावनाओं का है खेल सारा
हाँ ये ही सच है भाग्य पत्थरों का भी होता है ।


अब इंसान भी पत्थर सा दिल रखते हैं
धड़कने है दिल में अहसास न जाने कहाँ सोता है।



दुख में है पड़ोसी और तू तान के चादर सोता है 
न पूछता है कोई बात न दिल की बात कहता है ।


टूट रही रिश्तों की कड़ियाँ बस अपने घर को सीता है 
ना जाने हो गया है क्या इंसान को क्यों खुदगर्जी में जीता है ।


हाँ कुछ पत्थर सा इंसान रहता है नसीब अपना अपना
इंसानों के साथ नसीब पत्थरों का भी होता है ।


रखो भावनाओं का प्रस्फुटन, प्रेम का दरिया खुद में 
पत्थर बन कर नही कुछ हासिल तुम्हे होता है ।


स्वरचित 
निशा"अतुल्य"


गनेश रॉय" रावण"✒ भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़ "नही मिला सुकून मुझे"

गनेश रॉय" रावण"✒
भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़


"नही मिला सुकून मुझे"
"""""""""""""""""""""""'''''""""""'
सुकून के कुछ पल बिताने
गया था मैं अपने गाँव में
ठंडी पूर्वाइयो के छाँव में
पंछियों के मीठी तान में
पेड़ों पर लिपटी 
अमरबेल के साथ मे
वो गाँव की पुरानी पनघट में
गोरी की खनकती चुडे में
झम - झम करती पाजेब में
काली जुल्फों की बादल में
बनके आवारा उड़ने चला था
मस्त गगन के छाँव में
पर ऐसा हुआ नही
मेरे अनुरूप गाँव मे
चारो तरफ थे सोर सराबे
और रंजिशों के माहौल थे
एक से बढ़ कर एक खड़े थे
चुनावी मैदान में
ऐसे में मेरा दम था घूँटता
कैसे सुकून का पल मैं ढूंढता
चला आया मायूस होकर
कल-कारखाने की संसार में
पल भर भी नही मिला 
सुकून मुझे मेरे गाँव मे।


✒गनेश रॉय" रावण"✒
भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
9772727002
©®


रामचरित मानस को सभी पसन्द करंगे आनन्दित होंगे बलराम सिंह यादव पूर्व प्रवक्ता बी बी एल सी इन्टरकालेज खमरिया पण्डित धर्म एवम अध्यात्म व्यख्याता

कबित्त रसिक न राम पद नेहू।
तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू।।
भाषा भनिति भोरि मति मोरी।
हँसिबे जोग हँसे नहिं खोरी।।
प्रभुपद प्रीति न सामुझि नीकी।
तिन्हहिं कथा सुनि लागिहि फीकी।।
हरि हर पद रति मति न कुतरकी।
तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुबर की।।
  ।श्रीरामचरितमानस।
  जो न कविता के रसिक हैं और न जिनका प्रभुश्री रामजी के चरणकमलों में प्रेम है उनके लिए भी यह कविता सुखद हास्यरस का काम करेगी।सर्वप्रथम तो यह भाषा की रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है।अतः यह हँसने योग्य ही है अर्थात इस पर हँसने में उन्हें कोई दोष नहीं है।जिन्हें न तो प्रभु के चरणों में प्रेम है और न अच्छी समझ ही है उनको यह कथा सुनने में फीकी लगेगी।जिनकी भगवान विष्णु और भगवान शिवजी के चरणों में प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करने वाली नहीं है उन्हें श्रीरघुनाथजी की यह कथा मधुर अर्थात प्रिय लगेगी।
।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।
  भावार्थः---
  उपरोक्त चौपाई में गो0जी का यह आशय है कि इस ग्रँथ से सभी प्रकार के पाठकों व श्रोताओं को कुछ न कुछ उनकी पात्रता के अनुसार मनोरंजन व सुख की सामग्री अवश्य मिलेगी।कविता के रसिकों को हास्यरस से सुख मिलेगा क्योंकि यह हँसने योग्य है।सँस्कृत भाषा के अभिमानी विद्वान भी इसे साधारण भाषा में जानकर हँसेंगे।जो प्रभु के भक्त नहीं हैं और जिनकी समझ भी अच्छी नहीं है उन्हें न तो भक्ति रस का सुख मिला और न ही कविता का रस ही मिला।भगवान विष्णु और भगवान शिवजी में जो भेद या ऊँच नीच की कल्पना नहीं करते हैं उन्हें यह कथा अवश्य ही प्रिय लगेगी क्योंकि इस कथा के मूलरचनाकर भगवान शिव जी ही हैं।यथा,,,
रचि महेस निज मानस राखा।
पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा।
तातें रामचरित मानस बर।
धरेउ नाम हिय हेरि हरष हर।
  इस ग्रँथ में प्रारम्भ में शिव चरित्र है और बाद में प्रभु श्रीराम जी के चरित्र का वर्णन है अतः शैव व वैष्णव सभी भक्तजनों को यह कथा अवश्य ही मधुर अर्थात प्रिय लगेगी,ऐसा गो0जी को विश्वास है।
।।जय राधा माधव जय कुञ्ज बिहारी।।
।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।


श्रीमती स्नेहलता'नीर गीत सूखी पड़ी नेह की नदिया,

श्रीमती स्नेहलता'नीर


गीत


सूखी पड़ी नेह की नदिया,मरुथल हुई प्रीति की पुलकन
सुख की कोरी रही कल्पना,झुलस रहा मन का वृंदावन।
1
नहीं प्रेम की एक बूँद भी,इस जग से हमको मिल पाई।
राग-द्वेष की दुसह पीर की,अंतर् में बढ़ती गहराई।।


डाल रही दुनिया घावों पर,मिर्च, रामरस,अम्ल-रसायन
2
संबंधों के मतलब बदले,स्वार्थ सभी का ध्येय बना है।
सबके हाथों खूनी खंजर,अविवेकी मन रक्त सना है।


मीठे बैन छलावा केवल,अंतरंग है बहुत अपावन।
3
जिस पर किया भरोसा अतिशय,उसने छला हमें नित पल-छिन।
वर्षों बाद समझ पाए हम, भाग्य-रेख में बैठी नागिन।।


रात-दिवस व्याकुल नयनों से,झरझर-झरझर बहता सावन।
4
घुटती साँसों की नजरों से,रूठ गया अपना ही साया।
कफन दुखों का हमें उढ़ाकर,सबने जिंदा लाश बनाया।


अनहद दूर मौत जा बैठी,शूलों का है बना बिछावन।


श्रीमती स्नेहलता'नीर


डॉ. प्रभा जैन "श्री " देहरादून ----------------------- गगन  ----------- हुआ भोर का आगमन

डॉ. प्रभा जैन "श्री "
देहरादून
-----------------------
गगन 
-----------
हुआ भोर का आगमन 
गगन यूँ मग्न हुआ, 
इक कली ने घूँघट हटा 
पहली बार संसार देखा। 


पक्षियों ने उड़ते गगन में 
बाँह  खोल, ली मस्त उड़ान, 
सूर्य पिघला हुआ स्वर्ण सा 
आ गया ले सवारी गगन। 


 बैठी छत पर  मैं 
 कैनवस पर उतार रही प्रकृति
झील  में उमड़ता जल, 
गगन का नीलापन 
दिखा रही कैनवस पर।  


पायलें  गीत गुनगुनाने लगी 
फूलों की पंखुरी पर, 
महकने लगी 
पक्षियों ने डाला डेरा, 
कूँ- कूँ,ची-ची,चे-चे  कलरव 
धरा से गगन तक कर डाला। 


हैं,  प्रात :काल 
गगन में  ॐ ध्वनि बज रही, 
आरती, दीप, सुगंध,शंखध्वनि 
सब सुनाई दे रही। 


मंत्रों  का उच्चारण 
हर घर मंदिर से हो रहा,  
हर मन शान्त, ललाई लिए 
चहुँ ओर  नज़र आ रहा। 


मन मेरा भी दौड़ लगा रहा 
उड़ कर पहुँचू नील  गगन में, 
ऊँचाईयों को छू  लूँ । 


देख आऊँ  मैं  गगन के पार 
होता क्या ब्रह्माण्ड में, 
क्या हैं वहाँ भी जीवन 
हैं तो कैसा हैं जीवन। 
हैं तो कैसा हैं जीवन 


कितने सूरज, कितने तारे 
कितने चंदा हैं हमारे,  
क्या कोई कर रहा हैं इंतजार 
मेरा भी आने को गगन। 


बहुत मन हैं मेरा 
देखूँ मैं विशाल गगन


स्वरचित 
डॉ. प्रभा जैन "श्री "
देहरादून


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