देवानंद साहा"आनंदअमरपुरी

शुभ प्रातः -


हँसने से ग़म दूर हो  जाते हैं।
अपनेऔर करीब हो जाते हैं।


--देवानंद साहा"आनंदअमरपुरी"


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
        *"मानव"*
"कर अपमान अपनों का यहाँ,
वो पाषणो को पूजते।
ऐसे मानव जग में तो फिर, 
पाषण हृदय कहलाते।।
मानवता का मोल जगत में,
कहाँ- पहचान वो पाते?
मानव हो कर भी वो तो फिर,
मानवता को लज्ज़ाते।।
कर्मगति जग में उन्हे पल पल,
क्या-क्या-रंग दिखाती?
अपनों को बेगाना वो तो ,
यहाँ पल में बना जाती।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः          सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.abliq.in
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः         09-02-2020


राजेंद्र रायपुरी

😄  - फिर वही गंदी सी झाड़ू -  😄


झाड़ू फिर से आ रही, सुना यही है यार।


चुनकर  सारे  आ रहे, जितने थे बटमार।


जितने थे बटमार, न उनकी हुई  सफाई।


तभी रहे  हैं  बाँट, चौक में  खड़े मिठाई।


हुआ वही फिर यार, हुए नहिं दूर लफाड़ू।


फिर से लगे न हाथ,  वही गंदी सी झाड़ू।


               ।।राजेंद्र रायपुरी।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

युगलछवि के दर्शन से करो दिन की शुरुआत
मंगलमय हो जिन्दगी होय सुख की बरसात


दरस परस सब पावन मनभावन कृष्ण नाम
श्रीराधे जी की कृपा ये जीवन बने अभिराम


जग के सब अघ मिटें मिले जीवन का लाभ
राधा कृष्ण सुमरन से यहां जग में बढ़ें प्रभाव


सत्य हृदय की धड़कन श्री युगलछवि कौ रूप
मोय चाहत नहीं धन की हिय बसे युगलरूप।


श्रीकृष्णाय गोपालाय नमो नमः🌸🌸🌸🌸🌸🙏🙏🙏🙏🙏


सत्यप्रकाश पाण्डेय


कालिका प्रसाद सेमवाल

जीवन ही अब भार मुझे
*******************
मेरा अपना इस जग में ,
आज़ अगर प्रिय होता कोई।


मैंने प्यार किया जीवन में,
जीवन ही अब भार मुझे।
रख दूं पैर कहां अब संगिनी,
मिल जाए आधार मुझे।
दुनिया की इस दुनियादारी,
करती है लाचार मुझे।
भाव भरे उर से चल पड़ता,
मिलता क्या उपहार मुझे।
स्वप्न किसी के आज उजाडूं,
इसका क्या अधिकार मुझे।
मरना -जीना जीवन है,
फिर छलता क्यों संसार मुझे।


विरह विकल जब होता मन,
सेज सजाकर होता कोई।


विकल, बेबसी, लाचारी है,
बाँध रहा दुख भार मुझे।
किस ओर चलूं ले नैया,
अब सारा जग मंजधार मुझे।
अपना कोई आज हितैषी,
देता अब पुचकार मुझे।
सहला देता मस्तक फिर यह,
सजा चिता अंगार मुझे।
सारा जीवन बीत रहा यों,
करते ही मनुहार मुझे।
पागल नहीं अबोध अरे,
फिर सहना क्या दुत्कार मुझे।


व्यथा विकल भर जाता मन,
पास खड़ा तब रोता कोई।


फूलों से नफ़रत सी लगती,
कांटों से है प्यार मुझे।
देख चुका हूं शीतलता को,
प्रिय लगता है अंगार मुझे।
दुख के शैल उमड़ते आयें,
सुख की क्या परवाह मुझे।
भीषण हाहाकार मचे जो,
आ न सकेगी आह मुझे।
नहीं हितैषी कोई जग में,
यही मिली है हार मुझे।
ढूँढ चुका हूँ जी का कोना,
किन्तु मिला क्या प्यार मुझे।


पग के छाले दर्द उभरते,
आँसू से भर धोता कोई।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड
पिनकोड 246171


संजय शुक्ल कोलकाता

हिन्दुस्तान हमारा है।।


अब बीर जवानों गौर करो दुश्मन ने फिर ललकारा है।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक ये हिन्दुस्तान हमारा है ।।


जहाँ मस्तक इसका हिमालय और पावों को धोता सागर है।।
जहाँ किसानो की बस्ती और पनघट जल की गागर है।
लहरों मे डूबे ये सागर हमको भी खुद से प्यारा है।।


जहाँ प्यार मे डूबी ईद यहाँ और दीपों की दिवाली हो।
जहाँ प्रकाश पर्व हो सिक्खों का और रंग भरी ये होली हो।
जहाँ मिल करके सब रहते है वो जन्नत का इक द्वारा है।।


जिसकी मिट्टी मे कृष्ण पले और घुटने चलते राम यहाँ ।
ये गंगा जमुना की धरती मेरे मन का अभिराम यहाँ।
आजाद भगत लक्ष्मी बाई और सुभाष का गूजे नारा है।।


✍🏻रचनाकार:  संजय शुक्ल ✍🏻कोलकाता । मोबाइल नं: 9432120670


संजय शुक्ल कोलकाता

गांव की मिट्टी 
-------------------
सबा बन बन के महकेगी हमारे गाँव की मिट्टी।
हर इक आंगन से महकेगी हमारे गाँव की मिट्टी।।


जहाँ अलगू की चौपलें और काका की फटकारें ।
रहट के चाल पे थिरकेगी मेरे गाँव की मिट्टी।।


चली आयेगी धानी ओढ़ चुनरिया यहाँ सरसों।
छटा बन बन के बिखरेगी हमारे गाँव की मिट्टी ।।


जहाँ पनघट की गागर पे लिखा है नाम राधा का।
बड़ी बन ठन के निकलेगी हमारे गाँव की मिट्टी।।


इसी मिट्टी मे घुटनों पे चले श्री राम और कान्हा।
नहा गंगा में संवरेगी हमारे गाँव की मिट्टी ।।



सर्वाधिकार सुरक्षित-रचनाकार:
✍🏻 संजय शुक्ल ✍🏻 कोलकाता
 मोबाइल नं:9432120670


तनुज गोयल टोहाना                                                            नेहरू मेमोरियल विधि महाविद्यालय हनुमानगढ़,राजस्थान    

दिल में बहुत सवाल है
ROSE DAY SPECIAL
लाल-लाल गुलाब ने                                  कर दिया हलाल है,
फिर भी मनाते शौक से इसे
दिल में बहुत सवाल है....
- लाल रंग है प्रतीक प्रेम का
ऐसा सुनने को अक्सर मिलता है,
तन्हा रहता है मन जिनका
दिल उनका कहाँ लगता है।       
- रूठे लोग मनाने का
यही तो एक बहाना है,
वर्ना मिलने मिलाने का
यहां न कोई ठिकाना है।                             रोज़ डे मनाना है                                       तो देश को दिल से हटाना है,                      प्यार मोहब्बत का पैगाम फैलाकर              विश्व शांत बनाना है - विश्व शांति बनाना है।। लाल-लाल गुलाब ने                                  कर दिया हलाल है,
फिर भी मनाते शौक से इसे
दिल में बहुत सवाल है..


..# *तनुज की कलम से* Happy Rose Day😊


कवि सिद्धार्थ अर्जुन           छात्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय

,,,,,,,  "टिकता नहीं घमण्ड" ,,,,,,


इंसान बोल तेरा ये कैसा फ़ितूर है,
टिकता नहीं घमण्ड, तू क्यों इसमें चूर है..


कागज़ पे हासियां बनाके क्या मिला बता?
नफ़रत की वादियाँ बसा के क्या मिला बता?
दलदल में धँसता जा रहा ये कोहिनूर है,
टिकता नही घमण्ड ,तू क्यों इसमें चूर है........


चन्दा बनाया जैसे काली रैन के लिये,
रब ने बनाया तुझको,अम्न-चैन के लिये,
क्यों अम्न-चैन से तू आज कोसों दूर है?
टिकता नहीं घमण्ड,तू क्यों इसमें चूर है....


ये ऊँच-नीच छोड़ दो, ये ओछा ऐब है,
ये जात-पात तो ख़ुदा के संग फ़रेब हैं,
तू झाँक आज,तुझमें,नेकियों का नूर है,
टिकता नहीं घमण्ड, तू क्यों इसमें चूर है......


इंसान बोल तेरा ये कैसा फ़ितूर है?
टिकता नहीं घमण्ड, तू क्यों इसमें चूर है...?


                 कवि सिद्धार्थ अर्जुन
          छात्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय
                   08/02/2020


किशोर कुमार कर्ण  पटना बिहार

~~ वसंत का खुमार ~~


ऐसा मुख जो स्वप्न में देखा
गगन से उतरी धरा पर देखा
नख-शिखा से अद्भुत लगती
स्वप्न लोक की परी सी लगती


मुख आभा पर किरणें पड़ती 
स्वर्ण अनूठी चमक सी लगती 
पतली गरदन सुराही जैसी 
मृगनयनी सी नैनन उसकी


है वसंत का, खुमार है उस पर
माघ महिने का उभार है उन पर 
पोर-पोर आज ॠतुराज बना है
मंद-मुस्कान में राज छूपा है


भौहें जैसे कमान है साधे
अधर है, पुष्प, कली आधे-आधे
मन-चंचल, चितवन नभ को भागे
मुख-मंडल उर्वशी से लागे आगे


-किशोर कुमार कर्ण 
पटना बिहार


कैलाश , दुबे होशंगाबाद

हर किसी से प्यार का इजहार मत करना ,


बिन सोचे समझे बेसुमार मत करना ,


बस एक मसबरा है मेरा आपके लिए ,


गुलाब मिले न मिले ढूँढने में वक्त खराब मत करना ,


कैलाश , दुबे


डा.नीलम.अजमेर

*चित्र की महक*
---------------------------
बड़े दिनों के बाद
किसी बिसरी खुश्बू का 
अहसास आया
दरवाजे पर जब 
डाकिया बाबू आया


पाँवों में शर्म की बेड़ियों ने
दहलीज पर रोक दिया
मन प्रफुल्लित, तन शिथिल था/ थामने को मेरे दोस्त का साया मेरे साथ था


शिद्दत से वो मोगरे की
महक में डूबा खत पढ़ता रहा
हर शब्द से प्यार का
रस छलकता रहा


आगाज जिस खूबसूरती से
बयां हुआ
रुआं रुआं मेरा प्रेम- रस में
भीगता रहा


सुध न रही गात की कुछ
हृदय झंकृत होता रहा
अंजाम तक आते -आते
खत के डाकिया मुस्करा गया


बड़े ही प्यार से वो
मेरी प्रिया ,बावल़ी
कह गया ।


         डा.नीलम.अजमेर


देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी

...........बेगाना भंवरा...........


गुन गुन करता रहता है भंवरा ।
बाग में उड़ता रहता है भंवरा।।


एक फूल से लेकर हर फूल पर;
सदा मंडराता रहता  है भंवरा।।


बाग में सुंदर,सुगंधित फूलों का;
पराग  चूसता  रहता है भंवरा।।


बाग की कलियां देख मुस्काती;
फूल खिलाता रहता है भंवरा।।


फूलों को जब है कोई ले जाता;
बेचैन दिखता रहता  है भंवरा।।


नादान,मेहमान,अंजान,बेजान;
खिताब पाता रहता  है भंवरा।।


इससे हम बहुत सिखते"आनंद"
कर्तव्य निभाता रहता है भंवरा।


- देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"


देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"

.........चाहा है तुमको........


यूं ही नहीं   चाहा है तुमको ।
यूं ही नहीं सराहा है तुमको।।


मेरे दिल  के करीब  हो तुम ;
इसलिए  मनाया है  तुमको।।


बगैर  तेरे  मैं कुछ भी  नहीं ;
यह बात  बताया है तुमको।।


यूं तो  मिले थे  कई राह में ;
रब ने  मिलाया  है  तुमको।।


दोनों जीवन भर  रहें साथ ;
एहसास कराया है तुमको।।


सरगोशी पर ध्यान मत दो ;
कभी  फुटाया  है   तुमको।।


ये तो इकरार करो"आनंद";
कभी न रूठाया है तुमको।।


- देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"


प्रखर दीक्षित

*फुसकार जरुरी दूषण को..*


जब राजनीति का ओछापन, सारी सीमाएं पार करे।
जब धन बल तन बल दंभ बैर, सज्जनता का अपकार करे।।
तब नहीं नम्रता व्यवहृत हो, फुसकार जरूरी दूषण को,
चाणक्य नीति का  ताप प्रबल, परिणति को खुल साकार करे ।।


*प्रखर दीक्षित*


अवनीश त्रिवेदी "अभय"

शेर



हमेशा मैं जहाँ की हर  खुशी पाता  तुझे मिलकर।
तिरे अहसान की नेमत अब मुकफ्फल नही होती।


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


स्नेहलता'नीर' रुड़की,हरिद्वार कृष्ण भक्ति

गीत
***
 *मापनी--16-16 मत्त सवैया छंद।* 


बलवती कामना अंतर् की , *बंशीधर* मैं तुमको  पाऊँ।
तुम मुरली मधुर बजाओ जब ,तब स्वर लहरी मैं बन जाऊँ ।


मैं राह निहार रही कबसे,अँखियाँ *कान्हा* पथराईं हैं
व्याकुल बेबस हूँ *आदिदेव* ,मन की कलियाँ मुरझाईं हैं
ये बीत न जाये उमर कहीं ,मैं सोच -सोच कर घबराऊँ।
तुम मुरली मधुर बजाओ जब ,तब स्वर लहरी मैं बन जाऊँ ।


आहट जब सुनती मैं कोई,लगता है *हरि* तुम आये हो।
प्रियतम  *निर्गुण* अंतर्मन में,बस तुम ही  तुम्हीं समाए हो।
आकर बैठो सम्मुख मेरे,मैं निरख -निरख कर मुस्काऊँ।
तुम मुरली मधुर बजाओ जब ,तब स्वर लहरी मैं बन जाऊँ ।


 *घनश्याम* प्रीति पावन मेरी,पल- छिन नित बढ़ती रहती है।
सुन लोगे विनती एक रोज,उम्मीद हृदय में पलती है।
आओगे निश्चित *मनमोहन* ,मैं आस नहीं ये झुठलाऊँ।
तुम मुरली मधुर बजाओ जब ,तब स्वर लहरी मैं बन जाऊँ ।


रिश्ते -नाते जग के छोड़े , *मधुसुदन*  हुई तुम्हारी हूँ।
दुनिया के बोल लगें  पत्थर,फिर भी अब  तक  ना हारी हूँ।
मैं तुम्हें गहूँ ,सोना- चाँदी,मोती- माणिक सब ठुकराऊँ।
तुम मुरली मधुर बजाओ जब ,तब स्वर लहरी मैं बन जाऊँ ।


मन की इच्छा पूरन कर दो,फूलों -सी मैं खिल जाऊँगी।
वो घड़ी बता दो *गोविंदा* ,जिस घड़ी तुम्हें मैं पाऊँगी।
हर चीज जगत की नाशवान,तुम *अविनाशी* तुमको ध्याऊँ।
तुम मुरली मधुर बजाओ जब ,तब स्वर लहरी मैं बन जाऊँ ।


मैं टेर लगाती रात- दिवस , *गिरिधर* अब तो   तुम आ जाओ।
मैं जनम- जनम की प्यासी हूँ ,तुम प्रेम -सुधा -रस बरसाओ।
तुम हाथ थाम लो हे *केशव* ,मैं गीत मिलन के फिर गाऊँ।
तुम मुरली मधुर बजाओ जब ,तब स्वर लहरी मैं बन जाऊँ ।
स्नेहलता'नीर'
रुड़की,हरिद्वार


सरिता सिंघई कोहिनूर वारासिवनी बालाघाट मप्र


कविता...


नारी तेरी यही कहानी
आँचल दूध नयन में पानी


जाना किसने अंतस तेरा
जीवन है साँसों का डेरा


जानी सबने तेरी जवानी
पोरुष जीवन है मनमानी


रुह मिलन है क्षणिक प्रबंधन
नश्वर काया भृमित से बंधन


प्रेम समर्पण जिसको माना
वो था देह मात्र गुथ जाना


मन का था सोंदर्य आलोकम्
नारी नर से कभी नहीं सम


भृमित सदा माया है करती
नारी देह सदा ही भरती


प्रेम परिधि है सम हो जाना
देह के बंधनों से छुट जाना


अंतर नाद में प्रियतम तेरा
अलख निरंजन साथी सबेरा


प्रेम को प्रेम जो माने नारी
झुकती चरणों दुनियां सारी


आ मेरी तू रुह में बस जा
नर नारायणी सा मन गस जा


सुरेन्द्र मिश्र पूर्व निदेशक ATI कानपुर

अलविदा
जा रहा हूं दूर तुमसे अलविदा अब आपको।
लौटा रहा हूं आज मैं सारी यादें आपको।
तुम्हें जी भर देखने मजकी मेरी तमन्ना रह गई।
लब चूमती दिलकश हंसी अब ख़्वाब होकर रह गई।
कोशिशें कैसी करूं मैं जो भुला पाऊं आपको।
लौटा रहा हूं आज मैं सारी यादें आपको।
साथ बीते हसीं लम्हे वक़्त के संग खो गये। मजबूरियों की आग में अरमान सारे जल गये।
हर पल रहा बस मांगता कुछ दे न पाया आपको।
लौटा रहा हूं आज मैं सारी यादें आपको।
अब कभी ना दिन गिनूंगा अब न मैं राहें तकूंगा।
ख़ामोशियों में भी कभी मैं सदा कोई सुनूंगा।
दिल की बगा़वत का तभी अहसास होगा आपको।
लौटा रहा हूं आज मैं सारी यादें आपको।
फूल तो अब भी खिलेंगे खु़शबू कहां होगी मगर।
क्या बात मंजिल की करूं जब खो गई मेरी डगर।
जा न पाऊंगा कभी जो मुड़ के देखा आपको।
लौटा रहा हूं आज मैं सारी यादें आपको।
कैसी कशिश है आप में जो होश मैं खोता गया।
दीदार की हसरत लिए मदहोश मैं चलता गया।
आवाज़ मेरी खो गई कैसे पुकारूंं आपको।
लौटा रहा हूं आज मैं सारी यादें आपको।
कब कहां क्यूं और कैसे हम मिल गये किस मोड़ पर।
निकल आए बहुत आगे रिश्तों को पीछे छोड़ कर।
अब याद मैं किसको करूं कसदन भुला कर आपको।
लौटा रहा हूं आज मैं सारी यादें आपको।
चाहत कैसी है मेरी रिश्ता कैसा अनजाना।
भटका एक मुसाफ़िर हूं बिना शमा के परवाना।
मुफलिसी मेरा ख़ज़ाना सौगात क्या दूं आपको।
लौटा रहा हूं आज मैं सारी यादें आपको।
      सुरेन्द्र मिश्र


सुनीता असीम

जब प्यार सामने था मैंने ख्याल बाँधे।
धरती हरी हुई थी ऐसे अकाल बाँधे।
***
वो शाम का समय था उसके गले लगे थे।
अपने हिजाब से उसने क्या जमाल बाँधे।
***
कुछ धड़कनें बढ़ीं थीं कुछ शोर चाहतों का।
आँखें मिलीं हमारी उनमें कमाल बांधे।
***
कुछ पूछती निगाहें उसकी रहीं हमेशा।
मुझको लगा कि उनमें उसने सवाल बाँधे।
***
वो चेहरा रहा बस था चाँद को लजाता।
जुल्फें उड़ी हवा में उनमें रुमाल बाँधे।
***
सुनीता असीम
८/२/२०२०


कालिका प्रसाद सेमवाल रूद्रप्रयाग उत्तराखंड

तुम्हीं सच बताओ मुझे  मान दोगी
********************
तुम्हें गीत की हर लहर पर  संवारूँ,
तुम्हें जिन्दगी में सदा यदि दुलारूँ,
तुम्हीं सच बताओ मुझे मान दोगी,
बहुत मैं चला हूँ बहुत मैं चलूंगा,
कहीं गीत बनकर तुम्हारा ढलूंगा,
तुम्हीं सच बताओ मुझे गान दोगी।


प्रणय की निशानी नहीं रह सकेगी,
भले यह जवानी नहीं रह सकेगी,
तुम्हीं सच बताओ मुझे प्रान दोगी,
हृदय में कहो या सुमन में बिठाऊँ,
तरसते नयन है कहाँ देख पाऊँ,
तुम्हीं सच बताओ कहां ध्यान दोगी।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड
पिनकोड 246171


प्रखर दीक्षित फरुखाबाद

जीवन संगिनी को नाम....


तुम राग रागिनी प्रणय तंतु, तुम जीवन का मधु गीत प्रिये।
तुम आत्म शक्ति का प्रबल खम्भ, स्पंदन रा संगीत प्रिये।।तुम धवल चंद्रिका पूनौ की, श्रृंगार मूर्ति श्रद्धा रुपया,
जीवन संगिनि अर्धांग शची, तुम प्रीति रीति प्रतीत प्रिये।।


तुम प्रणय छंद का मधुर द्रुपद, प्रकृति रम्य साकार प्रिये।
तुम बिन बिखरा खण्डहर जीवन, सर्जना सृष्टि उपहार प्रिये।।
तुम जीवन सी पूरणमासी, रहती तम सघन अमावस का,
सुख दुख में  जयति पराजय में , इक सार सदा उपकार प्रिये।।
तुम हो तो दुनियाँ मुट्ठी में, साहस संबल शीतल छाया ।
अर्धांग सबल मुग्धा रसिका, 
तुमसे सुरभित घर सरमाया।।
तुम भाव व्यञ्जना संस्कृति हो, सत संस्कार की पोषर भी,
ज्वाला पानी दोनों धारण , ठहरा विप्लव अद्भुत पाया ।।


तुम अंश शिवानी दुर्गा का, तुम अन्नपूर्णा भरनी हो।
दाम्पत्य सूत्र का भरत वाक्य, शास्त्रोक्त पावनी तरनी हो।।
अनघे सुभगे रतिके वामा, तुम पारुल पांखुर अयस द्व़यी,
क्या हूँ प्रखर समझा इतना , तुम शास्वत हव्य की घरनी हो ।।



प्रखर दीक्षित


विवेक दुवे निश्छल रायसेन द्वादश ज्योतिर्लिंगों में तीसरे उज्जैन स्थित बाबा महाँकाल प्रातः 4 बजे का भस्मारती श्रृंगार दर्शन।

!!जय श्री महाँकाल


भवद्भक्तस्य संजात भवद्ररुपस्य मेsधुना ।
त्वामात्मरुपं संप्रेक्ष्य तुभ्यं मह्म नमो नम:।


अर्थात -में तुम्हारा भक्त हूँ ! अब तुम्हारा जो रुप है ,वही मेरा रुप होकर प्रकट हुआ है ।(क्योंकि में भक्ति के प्रभाव से तुम्हारा सारुप्य प्राप्त कर चुका हूँ । )
इसलिए इस समय तुम्हारा ही आत्मरुप  में अथवा निज रुप में दर्शन करता हुआ तुमसे अभिन्न जो में हूँ ,ऐसे मुझे और मुझसे अभिन्न जो तुम हो ,ऐसे तुम्हें नमस्कार करता हूँ ।
दयालु कृपालु भगवान


🎋🍁द्वादश ज्योतिर्लिंगों में तीसरे उज्जैन स्थित बाबा महाँकाल का आज प्रातः 4 बजे का भस्मारती श्रृंगार दर्शन। 8 फरवरी, 2020, शनिवार


👏👏👏🌹🌹🙏🙏🙏


नयी दिल्ली

 स्वैच्छिक (संस्मरण)
शीर्षकः 😢कराहता संस्मरण जीवन के🤔
भाग- १
एक दुःखद क्षण, घनघोर कालिमा चारोंतरफ, साँय साँय करती मौत की दहशत खड़ी थी सामने, सब कुछ समझ से पड़े, जोर जोर से कड़ाक कड़ाक की भयानक आवाज , जैसे धरती व आसमां  विनाशी भूकम्पन से काँप रहा हो ,समझ से पड़े । सुबह सात बजे का समय था , धीमी धीमी बरसात हो रही थी ,सभी यात्री ,बच्चे, बूढ़े,जवां सब आराम से अपने अपने बेडों पर सोये हुए थे निरापद निस्पन्द। दिल्ली से डिब्रुगढ़ आसाम जानेवाली राजधानी एक्सप्रेस अस्सी की स्पीड में धक धक छुकछुक करती हुई रेल निर्बाध बढ़ रही थी अपने गम्य नियत स्थान की ओर। २५ मई सन् २०१० की २.१५ बजे रात जब हमने सपरिवार गुवाहाटी जाने के लिए पटना रेलवे स्टेशन से राजधानी पकड़ी थी। देर रात रेल की प्रतीक्षा करने के कारण थके बच्चे बेसूध पड़े सो गये थे अपने अपने बर्थ पर। हम दम्पती भी निद्रा के सुकून में मशगूल थे। 
पर अचानक धमाके की आवाज दिल और दिमाग को चीखती हुई खटाक खटाक की भयानक आवाज ने घबरायी आँखें खोल दी। पल भर में बातें समझ में आ गई , सामने मौत दहशत देती खड़ी थी। राजधानी ट्रेन पटरियाँ छोड़ रही थी, अर्थात् दुर्घटना ग्रस्त हो गई थी। अचानक घबराये लोगों की सामने में जिह्वा लपलपाती  मौत को देख कारुणिक  चीख कोलाहल से वातावरण गुंजने लगा था। रोती हुई चिल्लाती मेरी धर्मपत्नी मेरी बेटे का हाथ पकड़ उसे उठा रही थी अपनी ज़ान की परवाह किए बगैर और मैं बेटी को ,यह जानते हुए भी कि सभी विकराल मौत के गाल में बस समा ही रहे हैं , जी लें साथ दहशती कुछ क्षण साथ मिल परिवार संग चिपके सब आपस में देखते आकुलित स्नेहिल आँखों से। ऊफ , अविस्मरणीय मौत का ताण्डव पलभर में सबकुछ खत्म , सारी अभिलाषाएँ धुलधुरसित मिट्टीपलित जिंदगी का दारुण भयावह अवसान।
परन्तु अचानक थम गई आवाज़ ,जम गए पहिए पत्थरों के आगोस में , रुक गई राजधानी सहसा, साँस में साँस आयीं मौत के गाल में समाये यात्रियों के। होड़ लगी उतरने की, शुरु हुई धक्कामुक्की , सबको अपनी ज़ान बचाने की फ़िकर थी , किन्हें चिन्ता थी उससमय अपने कीमती सामानों की, बच्चों की ,सब ट्रेन से कूदने में लगे थे ,जैसे अभी भी ट्रेन चल रही हो। कूदो कूदो ,उतरो जल्दी उतरो ,कोई कहता था, भाई,संभल के, कुछ अपने लाडलों को खींचते चीखते ,भगवान् खुदा ,वाहे गुरु ,गॉड का खुद को बचाने का गुहार लगाते। किनको थी उससमय किसकी फ़िकर ? क्यों न हो ,सबको तो इस वक्त अपने ज़ान के लाले पड़े थे, मौत जो ज़हरीले फन ताने खड़ी थी डँसने को उस वक्त। 
हम पति पत्नी भी हवा की झोंकों के समान बच्चों के हाथ पकड़ उतरने को ट्रेन से जैसे तैसे भी फाँदने को बेताब थे।
उतरे नीचे , बच्चे भयभीत थे इसकदर ,जो चिपके थे काँपते विलखते हमसे ,क्या हो गया ,हम क्यों उतर गये ट्रेन से , बिना रुके प्रश्न पर प्रश्न करते जा रहे थे। जांबाज था वह चालक ट्रेन का पटरियों से उतरी ट्रेन को अचानक बेंक ले बन साहसी रोक दी थी । बचा ली थी ज़ान तीन हजार मासूम यात्रियों को मौत के शैतानी विकराल खूनी विशालतम दानवी कण्ठग्रास से।  


भयानक आवाज़ से गुंजायमान आस पास कोसों तक गाँव के लोगों का लगने लगी जमावड़ा। बारिस हो रही थी , भीड़ बढ़ने लगी, शोर गुल चारों तरफ ,कुछ लूटने को, कुछ बचाने को। चौदह ट्रेन के डिब्बे पटरी से अलग चिपके थे ढाल बन खड़े पत्थरों में। नक्सलियों ने बम विस्फोट कर पटरियाँ उड़ाई थीं।  भयानक गढ्ढे बन गये वहाँ जहाँ बम लगाये थे मानवता के दुश्मन नक्सली आतंकवादियों ने। आधे किलोमीटर तक बिन पटरियों को खींच ले गई थी ट्रेन। यह आश्चर्यचकित करनेवाली भयावह घटना थी। बिना पटरी की ट्रेन उतनी दूरी तक आगे कैसे खींची चली गई ? पीछे की चार बॉगी जो विस्फोट के बाद पीछे छूट गये साठ प्रतिशत झुक गये थे । लोग काफी घाएल हुए थे। हमलोगों को भी चोटें आयी थीं ,खैर ज़ान बच गई थी सबकी। दुआ सब ट्रेन चालक को दे रहे थे । आज वही सबके सामने भगवान् नारायण, खुदा बनकर खड़ा था। 
घंटे भर में पूरी पूलिस महकमा आला अधिकारी सब घटनास्थल पर मौजूद थे। 
हताश दौड़े भागे आ रहे थे मीडियाकर्मी गण जैसे मानवता के सबसे बड़े पैरोकार सिपहसालार हों। 
हद तो तब हो गई कि उन्हें आम जनता सहमी पीड़ित जनता की फ़िक्र नहीं थी, वरन् वे ख़ोज रहे थे पूछ रहे थे पीड़ित असहाय यात्रियों से कि कोई विधायक, एम.पी, मंत्रियों या कोई वि वि आई पी यात्रियों के बारे में ,जो हताहत तो नहीं हुआ है इस ट्रेन दुर्घटना में। लोकतंत्र की सशक्त चौथी आँख का बेदर्द संवेदनहीन नज़ारा। शर्मसार हुईं इन्सानियत , नैतिक स्तर मानवीयता इन पत्रकार वाचालों की उससमय। सोचिए , क्या गुजरी होगी अवसीदित किसी तरस प्राणवायु पाये अवसीदित यात्रियों के मन में। कोई सुनने को तैयार न था क्रन्दित अवसादित करुणगाथा। 


खरीक और कटिहार के बीच में फँसे हम सभी अनवरत वर्षा और मोबाईल नेटवर्क से शून्य और असामाजिक लूटपाट से सम्बद्ध लोगों के बीच दहशत में पड़े  लाचार हम यात्रियों की करुणात्मक मनोदशा की आप कल्पना कर सकते हैं। 
ढाई घंटे के बाद मेडिकल उपचारार्थ ट्रेन आयी कटिहार से।आवाजाही के सभी रूटें बन्द  करवा दी गईं। उद्घोषणा की 
गई  १२.३० बजे अपराह्न एक रिलीफ़ ट्रेन कटिहार से गुवाहाटी तक फँसे यात्रियों को ले जाने के लिए आएगी , सभी यात्री जो ए सी फर्स्टक्लास ,  टू.ए , या थ्री टायर ए. सी में थे वे क्रमशः द्वितीय ,तृतीय और स्लीपर क्लास के डिब्बे में स्थान लें। 
सब यात्रियों के मुख पर राहत की लकीरें छा गई। पर ये क्या ? जैसे ही ट्रेन आयी आपाधापी धक्कामुक्की शुरु। सारे नियम कायदे ताख पर रख यात्री ट्रेन में चढ़ने लगे, बिना दूसरों के ख़्याल के , सीट बर्थ को अपने कब्जे में लेने को तत्पर। लगता ही नहीं था कि कुछ घंटों पहले उनके ज़ान के लाल पड़े थे, निकल आये थे दावानल मौत के घाट से।
ख़ैर , किसी तरह चढ़ पाए हम ट्रेन में ,वाद विवाद से मिल पायी बैठने की जगह। चल पड़ी रिलीफ़ ट्रेन अपनी मंजिल की ओर। बी एस एन एल मोबाईल नेटवर्क काम करने लगा , मैंने एक पास बैठे यात्री से मिन्नतें कर घरवालों को इस घटना की सूचना देने के लिए मोबाईल माँगी। उस भद्र व्यक्ति ने मोबाईल दे कृतार्थ किया और मैं अपने सम्बन्धियों को घटना की सूचना दी। सब घबराये थे। पर बोडाफोन नेटवर्क उपलब्ध न था । फोन लगातार उस सहयात्री के मोबाईल पर आने लगे, परन्तु दाद देनी चाहिए उस सहगामी मित्र का ,जो बिना किसी झुंझलाहट के हमें अपने फोन से संभाषण कराता रहा। पौने आठ बजे ट्रेन एन. जी. पी. रेलवे स्टेशन के पास ट्रेन गुज़र रही थी , बच्चे मेरी पत्नी अपनी नानी ,माँ से बातें कर रही थीं, वे आशीर्वाद दे रही थीं ,कुछ भी नहीं होगा हमारे जीते जी बच्चों को, आया ग्रह कट गया। मैंने भी बात की। वैसे वे दो दिन पहले रोक रही थीं गौहाटी जाने से , पर हमने उनकी बातें बच्चों की पढ़ाई के कारण मानी नहीं थी। 
रात सवा एक बजे ट्रेन गुवाहाटी रेलवे स्टेशन पहुँची। मेरी गाड़ी ले मेरा ड्राईवर स्टेशन के बाहर हाज़िर था। हमलोग डेढ़ बजे रात अपने निवास पहुँचे। बच्चे भी थके थे,बिस्तर पर लेटते ही नींद आ गई ।
हम दम्पती भी उसी क्रम में थे कि फोन की घंटी टनटनायी बार बार , मैंने रिसीवर उठायी और सुनकर अवाक् मैं कुछ बोल न सका रिसीवर छूट गई हाथ से। पत्नी घबराई मेरी आँखों से बहती अजस्र अश्कों को देख। बहुत पूछने पर बस इतना निकला मुख से " माँ चली गई पौने आठ बजे रात" । पत्नी चिल्लायी - पागल हो गये हैं आप ! हमने पौने आठ बजे बातें की हैं माँ से। ये हो नहीं सकता ,झूठ बोल रहे हैं आप ! उसी वक्त फिर फोन की घंटी बजी , ख़ुद उसने उठायी रिसीवर और कारुणिक निनाद करती हुई गिर पड़ी जमीं पर। मेरी मनःस्थिति की दुर्दशा का आकलन आप कर सकते हैं। पत्नी पैदल जाने को तत्पर पटना पागल बनी और ऐसा क्यों न हो ,बड़ी बेटी थी वह माँ की , कोई भाई नहीं, माँ की सभी अरमानों का महल। 
मैंने द्वितीय तल पर रहनेवाले अपने प्राचार्य श्री राजू सर को रात में जगाया, सारी बातें बतायी ,मकान मालिक को बतायी। ड्राईवर बुलाया और चल पड़े गुवाहाटी एयरपोर्ट। कोई टिकट उपलब्ध नहीं , तत्काल में कलकत्ता तक के लिए तात्कालिक चार वि.आई.पी,टिकट चालीस हजार रुपयों में इंडिगो टिकट मिली। मेरे प्राचार्य ने 70000/- रूपये निकाल कर दी मुझे अपने बचत खातों से जो भी शेष थे उनके पास। तीन बजे पहुंचा कोलकाता एयरपोर्ट। वहाँ से चौदह हजार रुपयों में एसकार्पियो भाड़े पर ले रात ७.३० बजे कोलकाता से पटना के लिए रवाना हम हुए। रास्ते में आये भयानक आँधी तूफान के झंझाबातों से जूझते हुए हम सभी महेन्द्रू ,पटना निवास पर दिनांकः २७ मई सन् २०१० को साढ़े दश बजे सुबह पहुँचे। अनन्तर हम सबने गुबली घाट, गंगा तट,पटना में अपनी ५४वर्षीय सासू माँ का दाहसंस्कार सम्पन्न किया। 
एक साथ हमारे साथ घटी ये दुर्दान्त रोंगटें खड़ी कर देने वाली भयावह घटनाएँ आज भी हम दम्पती और बच्चों के ज़ेहन में दुःखद स्मृति पटल पर विद्यमान है। ख़ुद को मौत की काली साये में ढकेलकर मेरे पूरे परिवार को जीवन दान दे गई सासू माँ। सच में माँ अपने बच्चों को अपने जीते जी बाल भी बाकाँ नहीं नहीं देती, उस दिन हम सबने अपनी आँखों से देखा,परखा। हम सब कृतज्ञ हैं उस माँ का ,जिनकी ममता
 स्नेहाशीर्वाद से आज हम आप सबके समक्ष उपस्थित हैं। 
डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"
नयी दिल्ली


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा “निकुंज दिल्ली


बड़बोलापन है बुरा , खोए बुद्धि विचार।
फँसे सभा चहुँओर से , बिन उत्तर लाचार।।१।।
बड़ी कीमती है बयां,सोच समझ कर बोल।
फँस फाँस पछताएगा , खुलेगा सब पोल।।२।।
पद की गरिमा है बड़ी , करो नहीं अपमान।
तभी सफल होता मनुज,अपरों को सम्मान।।३।।
मौन साध है कुंचिका ,सही वक्त मुँह खोल।
अनुभव की परिपक्वता , वाणी है अनमोल।।४।।
मार पीट दंगा कलह , करें न ऐसा काम।
भड़केंगे जनता वतन , होंगे जग बदनाम।।५।।
बने धीर सहिष्णु नित , वाणी हो गम्भीर।
सदा प्रभावी कर्ण प्रिय , मानक बने ज़मीर।।६।।
करो न ऐसा काम तुम , राष्ट्र बने कमज़ोर।
टूटे समरस मधुरिमा , राष्ट्र द्रोह घनघोर।।७।।
रचो नहीं साजीश तुम,करो न जन गुमराह।
चलो साथ मिल देश के , प्रेम परस्पर चाह।।८।।
करो धनी व्यक्तित्व को , मर्यादित आचार।
सार्वजनिक या व्यक्तिगत , निर्मल मन ख़ुद्दार।।९।।
बनो विवेकी सोच दिल , तभी बढ़ो नव ध्येय।
पाओ यश धन पद सुखद,जीवन जन मन गेय।।१०।।


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा “निकुंज”
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नयी दिल्ली


Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...