मासूम मोडासवी

दिल में मचलती चाहको क्या कहुं भला
उनकी  बदलती राह को क्या कहुं भला


हंसते  हुवे  लगायेंगे  अपने  गले  हमें
लेकिन सीमटती बांह को क्या कहुं भला


बढती  रही  तमन्नाऐं  वस्लो  करार  की
बे  रब्त  इस  निगाहको  क्या कहुं भला


कुरबत की हसरतों में  तन्हाइयां  मिली
हाले  दिले  तबाह को  क्या  कहुं भला


मासूम फिराक सहेते रहे अपनी जानपे
उनकी अधुरी पनाह को क्या कहुं भला


                         मासूम मोडासवी


बलराम सिंह यादव अध्यात्म व्याख्याता पूर्व प्रवक्ता बी बी एल सी इंटर कालेज खमरिया पण्डित

सब गुन रहित कुकबि कृत बानी।
राम नाम जस अंकित जानी।।
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही।
मधुकर सरिस सन्त गुन ग्राही।।
 ।श्रीरामचरितमानस।
  इसके विपरीत कुकवि की रची हुई सब गुणों से रहित कविता को भी राम के नाम और यश से युक्त जानकर बुद्धिमान लोग उसे आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं क्योंकि सन्तजन भौरों की भाँति गुणों को ही ग्रहण करने वाले होते हैं।
।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।
  भावार्थः---
  रामनाम जस अंकित कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे किसी राष्ट्र की मुद्रा पर उस राष्ट्र का प्रतीक चिन्ह होता है चाहे वह मुद्रा किसी धातु की हो अथवा कागज,प्लास्टिक या अन्य किसी वस्तु की।यदि वह मुद्रा उस राष्ट्रीय चिन्ह से युक्त है, तभी उसकी मान्यता है और सभी उसका सम्मान करते हैं तथा वस्तु विनिमय में उसका उपयोग करते हैं।बिना राष्ट्रीय चिन्ह के कोई भी उसे ग्रहण नहीं कर सकता है क्योंकि वह अमान्य है।इसी प्रकार राम नाम से युक्त वाणी अथवा कविता का सभी सन्तजन पूर्ण सम्मान करते हैं।जैसे कागज पर भी छपे हुये नोट का सभी सम्मान करते हैं यद्यपि उस कागज का वास्तविक मूल्य उतना नहीं है किन्तु राष्ट्रीय चिन्ह से युक्त वह कागज का नोट अथवा स्टाम्प मूल्यवान माना जाता है।
यहाँ गो0जी ने गुण ग्रहण करने में सन्तों की तुलना भौरों से की है।भौंरा सुगन्धित पुष्पों का रस ग्रहण करता है भले ही वे पुष्प कहीं भी खिले हों।वह पुष्पों के रङ्ग,रूप और जाति का विचार नहीं करता है।वह तो केवल उसकी सुगन्ध व रस से ही सम्बन्ध रखता है।इसी प्रकार सन्तजन भी प्रभुश्री रामजी के नामयश से युक्त कविता को ही प्रिय मानते हैं भले ही वह कविता किसी निम्न जाति के अथवा चांडाल द्वारा रचित क्यों न हो।आदि कवि महर्षि बाल्मीकिजी,सन्त रविदासजी, कबीर, रहीम आदि इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं।कवितावली में गो0जी ने राम नाम की महिमा का गान एक पद में निम्नवत किया है---
राम नाम मातु पितु स्वामि समरथ हितु,
आस राम नाम की,भरोसो रामनाम को।
प्रेम रामनाम ही सों, नेम रामनाम ही को,
जानौं नाम मरम पद दाहिनो न बाम को।।
स्वारथ सकल परमारथ को रामनाम,
रामनाम हीन तुलसी न काहू काम को।
राम की सपथ सरबस मेरे रामनाम,
कामधेनु कामतरु मोसे छीन छाम को।।
।।जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।
।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।


कवि हलधर जसवीर

कविता - कई पीढ़ियों की गाथाएँ 
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मेरे अंतर मन में रहती ,कई पीढ़ियों की गाथाएँ !
लहू शिराओं में बहती हैं , महासमर की युद्ध कथाएँ !!


पुरखों का ये गाँव बसा है इंद्रप्रस्थ यमुना के तट पर !
नस्लों का परिणाम फसा है आज हस्तिनापुर के अंदर !
खेल जुए का अब भी जारी ,चीर हरण होता द्रोपद का !
अंधे युव राजों के नीचे होती अब भी मूक सभाएं !
मेरे अंतर मन  में रहती कई पीढ़ियों की गाथाएँ !!1 


बोद्ध गया का परिसर देखा वैशाली के शिलालेख भी !
कौशांबी की लाट देखकर जाना पुरखों का विवेक भी !
गौतम देश देश में घूंमे दुनियाँ ने उनके पग चूमे !
अपना राष्ट्र मलीन हो गया काम न आयी मर्यादाएं !
मेरे अंतर मन में रहती कई पीढ़ियों की गाथाएँ !!2


पांडव स्वर्ग सिंधार गए हैं गद्दी पर बैठे दुर्योधन !
राजनीति के गलियारों से लूट रहे हैं मनमाना धन !
विदुर नीति भी गौण हो गयी ,माधव गीता ज्ञान खो गया !
कलयुग के इस कोलाहल में मूक हो गयी वेद ऋचायेँ !
मेरे अंतर मन में रहती कई पीढ़ियों की गाथाएँ !!3


भारत माता मांग रही है लेखा अब बीते सालों का !
किसके पास बही खाता है घाटी में सोये लालों का !
कितनी चूड़ी टूट गयी हैं कितनी सेजें रुंठ गयी हैं !
दिल्ली खोज नहीं पायी है "हलधर "अब भी सही दिशाएँ !
मेरे अंतर मन में रहती कई पीढ़ियों की गाथाएँ !!4


                हलधर -9897346173


अतुल मिश्र अमेठी

      [महिमा] 


करत- दरश ईश की,
मन को आया ख्याल।
एक पुष्प पूरन करत,
क्या प्रभु की हर आस।।


जो फूल चढावन हम गये,
भौंरे किये हैं रस-पान।
क्या सोच प्रभु स्वीकार है,
नहिं कोई संवाद।।


प्रभु महिमा या माया कोई, 
समझ सके न कोय।
सब जन हित के लिए,
प्रभु ने रचा है ये ढोंग।।


नहिं तो सोचिए आप - जन,
जिसने किया हो जीवन दान।
वो करेगा क्या बाद में,
तेरे अर्थ का पान।।


........ ATUL MISHRA............


देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी

...........छोड़कर नहीं जाया कीजिए............


छोड़कर  इस  तरह,कहीं  नहीं जाया कीजिए।
कसम है  सनम, ख्यालों  में  आया  कीजिए।।


बेरुखी से  दिल  कहीं  हो  न  जाए  बिस्मिल ;
बहार की  फिजाएं कमाल,न जाया कीजिए।।


हम   तो   बैठे  हैं , पलक  पांवड़े  बिछा  कर ;
भीगते होठ छूकर, दिल में  समाया  कीजिए।।
 
मत जाइए कहीं धड़कते  जिगर  को छोड़कर;
जिगर  को  जिगर  के  करीब लाया कीजिए।।


उम्मीद  जगी  है  फसल - ए - बहार  देखकर ;
रूठकर उम्मीद पर पानी न फिराया कीजिए।।


ख़ामोश   लब   बहुत   कुछ   कह   जाते   हैं ;
लब  के  पैग़ाम  को दिल से लगाया कीजिए।।


दिल की प्यास ज्यों -  ज्यों  बढ़ चली"आनंद";
दिल  की  प्यास  दिल  से  मिटाया  कीजिए।।


--------------- देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"


एस के कपूर* *श्री हंस।।बरेली*

*।।।।।।।।।खुशी की  तलाश।।।।*
*।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।।।।।।*


खोज  रहा   जो  ख़ुशी  तू
बिखरी हर ओर यहाँ वहाँ।


तेरे   भीतर ही विद्यमान है
बस   वहीँ    और     कहाँ।।


मत  खोज  उसे  बहुत  दूर
सितारों   से जाकर    आगे।


मुस्करा कर तू  मिल सबको
मिलेगा मुस्कराता ये   जहाँ।।


*रचयिता।।।।।एस के कपूर श्री*
*हंस।।।।।।बरेली।।।।।।।।।।।।*
मोब   9897071046  ।।।।।
8218685464  ।।।।।।।।।।।


एस के कपूर* *श्री हंस।।।।।।।बरेली।।*

*विविध मुक्तक।।।।।।*


सोच विचार
योजना से पहले
सही आधार


शिकवा गिला
भूल   बातें   पुरानी
दिलों को मिला


लगाते आग
करते      अपराध
खुद भी खाक


जीवन जंग
हर पल  नया  है
जीवन अंग


ये जी हजूरी
बदल  गया वक्त
अब जरूरी


सबका किस्सा
एक    बात  जरूरी
निभायो हिस्सा


दिल न लगे
जब प्यार है जगे
कुछ न तके


*रचयिता।।एस के कपूर*
*श्री हंस।।बरेली*
मोबाइल 9897071046
             8218685464


एस के कपूर* *श्री हंस।।।।।।।बरेली।।*

*विविध मुक्तक।।।।।।।।*


यह मुस्कान
जीत सकते हम
पूरा जहान


अमन  चैन
पहली  जरूरत
दिन ओ रैन


जैसा है देश
अलग  अलग  है
वहाँ का भेष



प्रभु चरण
सबहीं कष्ट मिटें
प्रभु शरण



खंडित न हो
ये विश्वास कभी भी
जुड़े नहीं वो



स्वार्थी न बनो
आशा दीप जलाओ
सारथी  बनो


ये परिवार
स्वप्नों की दीपमाला
बसता प्यार



हो मन चंगा
ह्रदय शीतल सा
कठौती गंगा


*रचयिता।।एस के कपूर*
*श्री हंस।।।।।।।बरेली।।*
मो      9897071046
          8218685464


एस के कपूर श्री हंस* *बरेली*

*कलयुग नहीं कल का युग हो।*
*मुक्तक*


मिल कर बनायें संसार जिसमें
बस अमनों सुख हो।


बसे ऐसा भाई  चारा  कि  नहीं
कहीं  कोई  दुःख हो।।


भाषा संस्कार ओ संस्कृति सब 
कुछ   सुरक्षित    रहे।


दुनिया न    कहलाये    कलयुग
हो तो कल का युग हो।


*रचयिता।एस के कपूर श्री हंस*
*बरेली*
मोबाइल        9897071046
                    8218685464


संजय जैन(मुम्बई)

*कलम का कमाल*
विधा : गीत


लिखता में आ रहा,
गीत मिलन के में।
कलम मेरी रुकती नही,
लिखने को नए गीत।
क्या क्या में लिख चुका,
मुझको ही नही पता।
और कब तक लिखना है,
ये भी नही पता।
लिखता में आ रहा.....।।


कभी लिखा श्रृंगार पर।
कभी लिखा इतिहास पर।
और कभी लिख दिया, 
 आधुनिक समाज पर।
फिर भी आया नही, 
सुधार लोगो की सोच में।।
लिखता में आ रहा...।।


लिखते लिखते थक गये, 
सोच बदलने वाली बाते।
फिर नही बदले लोगो के विचार।
इसे ज्यादा क्या कर सकता, एक रचनाकार।।
 लिखता हूँ सही बात,
अपने गीतों में...
अपने गीतों में......।।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन(मुम्बई)
10/02/2020


निशा"अतुल्य" देहरादून

कान्हा 


सुन मुरली की धुन नाच रही गोपियाँ
राधा रानी बावरी है सब हुए बलहारी ।


नाच रहे सब सँग वृंदावन बिहारी
गली गली धूम मची मेरे हैं बस मुरारी।


हर गोपी साथ दिखे रास सँग राधा रानी
मुरली की सुन तान मंत्र मुग्ध नर नारी। 


सबको ही साथ दिखे नित नए भेष धरे
कृष्ण सँग राधा रानी मन सम्मोहित करे


जब छेड़े कान्हा तान मुरली की जो है जान
कान्हा कान्हा रटते निकल न जाये प्रान। 


स्वरचित 
निशा"अतुल्य"


सत्यप्रकाश पाण्डेय

प्रीति की रीति


प्रीति की रीति बड़ी अनौखी,
करके प्रीति तो जग में देखो।
प्रीति से बड़ा न मंत्र जगत में,
किसी से प्रीति निभाकर देखो।।


कान्हा संग प्रीति हुई गोपिन की,
लोक लाज सब उनने तज दीन्ही।
श्याम रंग में वह ऐसी रंग गई,
पति प्रियतम की परवाह न कीन्ही।।


मधुवन और कालिंदी तट पर,
प्रीति पाग में वह ऐसी पग गई।
जन्म जन्मांतर के पाप काटकर,
कृष्ण प्रीति से भवसागर तर गई।।


प्रीति पराकाष्ठा अर्जुन की भी,
त्रिभुवन के पति भूले ठुकराई।
बनकर सारथी रथ हांक रहे वे,
कुरुक्षेत्र में मद्भगवत गीता गाई।।


जहां नारद जैसे संत विशारद,
यति सती और सुक सनकादि ।
नेति नेति कह जग जीवन बीता,
प्रेम विवस हो काटी गज व्याधि।।


प्रीति की रीति बड़ी अलौकिक,
तुम भजकर तो देखो  यदुराई।
कट जायेंगे यहां सारे भव बंधन,
प्रीति की राह चलो तो मेरे भाई।।


रास रचैया श्री माधव की जय🙏🙏🙏🙏🙏🌸🌸🌸🌸🌸


सत्यप्रकाश पाण्डेय🙏🙏


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
         *"बंधन"*
"छोड़े स्मरण प्रभु राम का,
पल-पल मन तरसा हैं।
मोह-माया बंधन संग,
तन-मन फिर जकड़ा हैं।।
स्वार्थ अहंकार  में फिर,
पल-पल मन भटका हैं।
पाये सुख की छाया फिर,
सुख को मन तरसा हैं।।
विलासिता ही जीवन का,
बन गया आधार हैं।
छोड़े बंधन जीवन के,
मन करे न विचार हैं।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः           सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.abliq.in
ःःःःःःःःःःःःःःःःः          10-02-2020


राजेंद्र रायपुरी

😌😌    दोहे राजेंद्र के    😌😌


घोड़े  तरसें  घास  को, गदहे  खाएँ  खीर।
देख व्यवस्था आज की,हिय उठती है पीर।


कुत्ते  बोटी खा रहे, गाय  तरसती  घास।
सच्चाई है आज की, मत समझो परिहास।


लम्पट की ही पूछ है, ज्ञानी   होय न पूछ ।
लम्पट  की  झोली भरी, ज्ञानी  बैठा  छूँछ।


शेर नहीं राजा बने, हो  सियार  का  राज।
कोशिश सारे कर रहे, देखो  लम्पट आज।


                  (राजेंद्र रायपुरी)


कवि सिद्धार्थ अर्जुन

गर्भ की ओर जाती बेटी,
रुकी,
लौटी,
बोली,
नहीं जाऊँगी,
वो नहीं आने देंगे मुझे 
अपनी दुनिया में,
तुम करो एक काम,
भेज दो पहले ,
ज़्यादा सा दहेज़,
माँ की कोख़ में,
फिर मैं चली जाऊँगी
ख़ुशी-ख़ुशी..........


          कवि सिद्धार्थ अर्जुन


कैलाश , दुबे ,होशंगाबाद

नफरत की आग क्यों लगायें हम ,
किसी के सीने में ,


ऐ यार मजा तो आता है सिर्फ बस ,
भाईचारे से जीने में ,


अपने सीने में भी बदले की आग है ,
पर दफन कर दो उसे भी ,


जियो मौज से अब ऐ दोस्त मेरे ,
मजा आता नहीं गरदिश से जीने में ,


कैलाश , दुबे ,


प्रतिभा प्रसाद कुमकुम

(849)              प्रतिभा प्रभाती


नहीं चाहिए प्यार किसी का ।
यह धोखा और फरेब है ।


मन के गलियारे में राम बसा हो ।
मन मंदिर में पूजा अर्चन हो ।


मात पिता की सेवा करना ।
यहीं मंदिर गुरुद्वारा है ।


प्रात: प्रभात में प्रतिभा प्रभाती ।
सभी को नमन और वंदन है ।


अपना कर्म और धर्म करना है ।
मर्म मर्मग्य पकड़ाते हैं ।


दिल किसी का कभी न दुखाना ।
यही प्रथम सी पूजा है ।।



🌹 प्रतिभा प्रसाद कुमकुम
      दिनांक  10.2.2020.....


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डॉ राजीव कुमार पाण्डेय

पिता विषय पर अनुपम काव्य संग्रह है 'सृजक'
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संस्कार भारती गाजियाबाद द्वारा द्वारा आयोजित -'पिता सृजन काव्य महोत्सव'  न केवल अकल्पनीय, अविस्मरणीय था बल्कि एक कीर्तिमान भी था।कीर्तिमान इसलिये कि एक ही प्रांगण में 250 कवियों का कविता पाठ और एक ही विषय 'पिता' पर। 
कवियों ने सृजन किया पिता विषय पर और 'सृजक' के रुप में दूसरा कीर्तिमान बन गया जो अब आपके हाथों में पहुँच रहा है।
कवि,कथाकार,हाइकुकार,समीक्षक डॉ राजीव कुमार पाण्डेय और सुप्रसिद्ध लोकप्रिय हास्यकवि डॉ जयप्रकाश मिश्र के सम्पादन में प्रकाशित 'सृजक' काव्य संग्रह अनूठा,अद्भुत, अनुपम, इसलिए भी है क्योंकि केवल पिता विषय पर हिन्दी साहित्य जगत में प्रथम प्रयास है जिस ग्रन्थ में 116 रचनाकारों को सम्मलित किया गया हो।
संस्कार भारती के अखिल भारतीय संरक्षक पद्मश्री बाबा योगेंद्र जी को समर्पित 'सृजक' काव्य ग्रन्थ देखने में ही आकर्षक नहीं है बल्कि इसकी रचनाएं भी स्तरीय है। इस ग्रन्थ में राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय कवियों की मनोहारी कविताएं हैं, जो न केवल भावपक्ष की दृष्टि से सम्रद्ध हैं बल्कि कलापक्ष की दृष्टि से बेजोड़ हैं।
अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त गीतकार डॉ कुँवर बेचैन, श्री कृष्णमित्र,डॉ वागीश दिनकर, डॉ वी के वर्मा शैदी,डॉ कुँवर वीर सिंह 'मार्तंड' सहित कुल 116 शब्द साधकों की अनुपम रचनाओं से यह ग्रन्थ अमूल्य बन गया है जो सहेजने योग्य है।
बेल्जियम से वरिष्ठ शायर श्री कपिल कुमार,जापान से कोमल सम्बेदना की कवयित्री डॉ रमा सिंह, नेपाल के त्रिभुवन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ विधान आचार्य , डॉ वासुदेव काफले, डॉ प्रियम्बदा काफ़्ले की उपस्थिति से सृजक ग्रन्थ को नयी ऊंचाई प्राप्त हुई है।
यह ग्रन्थ कई मायनों में विशेष है। इसमें सभी कवियों को वर्णानुक्रम में प्रकाशित किया गया है।
पिता की महिमा में रचित इस ग्रन्थ की अंतर्यात्रा करते हुए कुछ वानगी के रूप में यहाँ रखने का प्रयास कर रहा हूँ-
डॉ कुँवर बेचैन साहब की ये पंक्तियां ये पंक्तियां भाव विभोर कर देती हैं-
 "ओ पिता तुम गीत हो घर के
और अनगिन काम दफ्तर के।"


वरिष्ठ कवि एवं शिक्षाविद डॉ अनिल वशिष्ठ कहते हैं-
"घर का पहरेदार खुद को बस बताता है पिता।
प्यार ममता को लुटाकर घर चलाता है पिता।"


पिता दिखने में कितने कठोर किन्तु ह्रदय से कितने कोमल होते हैं यही भाव लिये डॉ अंजू सुमन साधक का यह दोहा-
पिता नारियल से दिखे, धर कठोर आकार।
सन्तानों पर कर रहे,'सुमनों' की बौछार।


वर्तमान परिदृश्य में संस्कारों की कमी आती है तो शायर कपिल कुमार का अंदाज कुछ इस प्रकार होता है-
जो तुतलाते फिरते थे कुछ रोज पहले,
बड़ों से जुबां अब लड़ाने  लगे  हैं।


कोलकाता से साहित्य त्रिवेणी पत्रिका के सम्पादक वरेण्य गीतकार डॉ कुँवर वीर सिंह मार्तंड जी लिखते हैं-
पिता विटप है जीवन की सब तपन सहा करता है।
लता गुल्म सम सन्तानों को छाँव दिया करता है।
माँ की ममता  सन्तानों को बड़ा किया करती है।
किन्तु पिता की इच्छा उनको खड़ा किया करती है।


गीतिकाव्य परम्परा की वरिष्ठ कवयित्री एवं कंठ कोकिला  नेहा वैद का यह मुक्तक-
करें घर भर का हित जैसे कि इक सूरज हैं बाऊजी।
अगर है माँ धरा फिर उसकी हर सज धज हैं बाऊजी।
सहें खुद ग्रहण को करते न उफ लेकिन प्रदूषण से,
हुए हैं आग का गोला कि इक अचरज हैं बाऊजी।


डॉ मधु चतुर्वेदी अपनी रचना में अपने पिता को पुनः अगले जन्म में भी पाना चाहती है-
परमपिता से यही प्रार्थना,जब जब जन्म मिले।
उसके जैसा नहीं,मुझे बस वो ही पिता मिले।


जापान की कवयित्री डॉ रमा शर्मा   भावों के सागर में खो जाती है और कहती हैं-
पिता है बस इक खामोश माली सा
रखता ख्याल अपने बाग के
हर फूल का हर डाली का।


मैंने भी अपने मन की बात इस प्रकार कही है-
पंच तत्व से निर्मित  काया,
सुन्दर तन मन जीवन पाया
रोम-रोम है  ऋणी  तुम्हारा
रग रग में अस्तित्व समाया
वही सृजन के बीज आज तज, महकरहें हैं इस उपवन में।
हम उनको नमन करें।।


वरिष्ठ शायर श्री राज कौशिक की ग़ज़ल का एक शेर  कुछ यूँ हुआ है-
सभी बच्चों को आँगन में तो चलना माँ सिखाती है।
जमाने में चलें।  कैसे पिताजी ही   सिखाते हैं।


डॉ वागीश दिनकर की कविता  में भाव,शिल्प के साथ भाषा भी बड़ी परिमार्जित होती है। कुछ पंक्तियां देख लीजिए-
पूज्य   पिताजी शत शत  मधुमासों को देखें हर्षाएं।
इनका ज्योतित जीवन शत शत शरच्चन्द्रिका छिटकायें।
कवितामय आदेश प्राप्त कर मंगल मोद मनायें हम,
रोग दुख सब दूर रहें सुखमय जिजीविषा मुस्काये।


काठमांडू नेपाल से प्रो0 डॉ विधान आचार्य बचपन की स्मृतियों को कुछ शब्द इस प्रकार कह देते हैं-
मेरे लिये बाबूजी ही झूला थे,घोड़ा थे
थैले के अंदर एक हवाई जहाज थे
बाबूजी ही बिस्किट थे,पानी थे 
बाबू जी मेरे आप ही सब कुछ थे।


श्री चन्द्रभानु मिश्र की के गीत बड़े मार्मिक होते हैं उन्हें पढ़कर, सुनकर करुणा का भाव अनायास आ जाता है-
प्राण तजे थे केवल दशरथ,राम विरह में आहत हो।
अवधपुरी में और न कोई,जिसमें इतनी चाहत हो।
सिर पर लिये कन्हैया अपना, यमुना जी के पानी में।
वासुदेव सा पिता कहाँ है,कान्हा की  निगरानी में।


डॉ जयप्रकाश मिश्र की इन पंक्तियों में पिता के चरित्र को उभारने का प्रयास सफल रहा है-
बोझ ढोता रहा जान जब तक रही।
ना बनूँ  बोझ मैं बात ठनती रही।
खाँसने से कोई जाग पाए नहीं।
सोचकर यह गले को दबाता रहा।


श्री कृष्णमित्र जी की ये श्रेष्ठ पंक्तियां सदा प्रेरणा दायी रही है इस ग्रन्थ के लिये-
पिता कुलवंश की परिपाटियों का जन्मदाता है।
पिता ही पीढ़ियों की सृष्टि का अनुपम विधाता है।
पिता सम्पूर्णता के हर नियम की रूपरेखा है।
पिता है ओम का अक्षर जिसे हर युग ने देखा है।


इस प्रकार पिता के चरणों में 116  रचनाकारों ने अपनी भावांजलि दी है वे इस प्रकार हैं
अभिलाषा विनय,अटल मुरादाबादी,अतर सिंह प्रेमी, अंजु सुमन साधक,डॉ अनिल वशिष्ठ, अनन्त  लक्ष्येन्द्र,अरुण कुमार,अरूण गढ़वाल,अरुण कुमार शर्मा,अशोक राठौर,अशोक विश्नोई,अवधेश कुमार 'निर्भीक',आवरण अग्रवाल,उमाशंकर दर्पण,उमेश श्रीवास्तव, ऊषा भिड़वारिया,ऋतु गुप्ता,कमलेश संजीदा,कपिल कुमार,डॉ कल्पना दुबे,कृष्ण मित्र, डॉ कृष्ण कांत मधुर,कृष्ण कुमार दीक्षित,डॉ कुंवर बेचैन,कुंवर देवेन्द्र,डॉ कुंवर वीर सिंह 'मार्तंड', केशव प्रसाद पाण्डेय,गार्गी कौशिक,गोपाल गुंजन,चंद्रभानु मिश्र,चारु अग्रवाल,जगदीश प्रसाद गुप्त,जगदीशचन्द्र वर्मा 'अनन्त',डॉ जयप्रकाश मिश्र,जयप्रकाश रावत,जयशंकर प्रसाद द्विवेदी,डॉ जयसिंह आर्य, जयवीर सिंह यादव, डॉ तारा गुप्ता,तूलिका सेठ,दिनेश दत्त शर्मा वत्स,दिनेश दुबे'निर्मल',दिव्य हंस दीपक, नन्दकिशोर सिंह,नरेशकुमार,निवेदिता शर्मा ,नीलू गोयल,नेहा वैद, पारो चौधरी, प्रदीप गर्ग 'पराग', प्रद्योत पराशर,प्रशांत दीक्षित, प्रशांत मिश्र, प्रेम सागर 'प्रेम', डॉ प्रियम्बदा काफ़्ले, बाबा कानपुरी,बी एल गौड़, बी के वर्मा शैदी, ब्रजनारायन लाल श्रीवास्तव'बृज',ब्रह्मप्रकाश वशिष्ठ 'बेबाक',भोला सिंह,मदनलाल गर्ग,डॉ मधु चतुर्वेदी, मधुबाला श्रीवास्तव, मनोज गर्ग मन्नू,मंजू गुप्ता,मानसिंह बघेल,मित्र गाजियाबादी,डॉ मीनाक्षी सक्सेना कहकशां,डॉ मीनाक्षी शर्मा,डॉ मेजर प्राची गर्ग,यशपाल सिंह चौहान,रचना वानिया,डॉ रमा शर्मा, रमेश प्रजापति,राजकुमार  शर्मा,राजकुमारसिसोदिया सिसोदिया,राज कौशिक,डॉ राजीव कुमार पाण्डेय,राजीव सिंघल,राजू राज,राजेन्द्रकुमार बंसल,राम चरण सिंह'साथी',रामस्वरूप भास्कर,रीता जय हिन्द,लक्ष्मी शर्मा 'श्री'डॉ वागीश दिनकर,डॉ वासुदेव काफ़्ले,डॉ विधान आचार्य,डॉ वीणा मित्तल, विजय कौशिक, विनय विक्रम, विवेक निर्मल,विनोद कुमार हैसोड़ा,वी के मेहरोत्रा
 स्नेहलता भारती,सरोज त्यागी,डॉ सरोजिनी तनहा,सुधीर कुमार,डॉ सुभाषिनी शर्मा,सुरभि सप्रू,डॉ सुरेश यादव दिव्य,सुरेन्द्र शर्मा 'उदय',संजीव शर्मा,सुषमा सवेरा,सुधीर कुमार,सोनम यादव, सोमवार शर्मा,डॉ श्वेता त्यागी,शशि त्यागी,शुभ्रा दीक्षित,शिव भोलेनाथ श्रीवास्तव,शैलजा सिंह ,डॉ हरिदत्त गौतम 'अमर', हिमाचल कौशिक ।
इन कवियों की ये कविताएं  कविताएं नहीं बल्कि ऋचाएं हैं 
जिन्हें पूजा घर में रखकर नियमित पाठ कर पितृऋण से उऋण हुआ जा सकता  है। इन कविताओं की व्यंजना को ह्रदय में उतारा जा सकता है,आत्मसात किया जा सकता है।
घर के वातावरण को संस्कारमय बनाने के लिये यह ग्रन्थ घर घर पढ़ा जाना चाहिए।
पिता विषय पर अतुलित अपरमित साम्रगी का अनूठा दस्तावेज है यह ग्रन्थ। इन सभी साधकों की लेखनी को बारम्बार नमन करते हुए अखण्डित शुभकामनाएं भी देता हूँ कि इसी प्रकार अपने सृजन में रत रहकर संस्कार की कविताएं रचते रहें।


   'सृजक '
काव्य संग्रह


सम्पादक
डॉ राजीव कुमार पाण्डेय
डॉ जयप्रकाश मिश्र


प्रकाशक
जिज्ञासा प्रकाशन गाजियाबाद
मूल्य- 250 रुपये


प्रस्तुति 
डॉ राजीव कुमार पांडेय
कवि,कथाकार, हाइकुकार,समीक्षक
1323/भूतल वेबसिटी
सेक्टर-2 गाजियाबाद
मो0 9990650570
ईमेल-kavidrrajeevpandey@gmail.com


अमित अग्रवाल 'मीत'

*"घर के आंगन से उठता स्याह धुआं"*


घर के आंगन से उठता वो स्याह धुआं,
अहसास दिला देता था, मां के घर पे होने का...


रसोई से आती भोजन की लाजवाब खुशबू,
बढ़ा देती थी बरबस ही भूख सबकी...


कभी एक पल भी नहीं सोचा हमने,
कि ये धुआं खराब कर सकता है मां की आंखें...


न ये सोचा कि चूल्हे से उठता ये धुआं,
बिगाड़ सकता है उनकी तबियत कभी भी...


हमें तो सिर्फ पेट की भूख ही नजर आयी,
नहीं नजर आया मां की आंखो से बहता पानी...


वो पानी, जिसकी वजह चूल्हे से उठने वाला धुआं था...
वही स्याह धुआं,
जो अहसास दिला देता था, मां के घर पे होने का...


- रचनाकार
अमित अग्रवाल 'मीत'


प्रिया सिंह लखनऊ

हिस्से में मेरे चार कोने का मकान नहीं आता
थका बहुत पर सफर में मेरे मचान नहीं आता


बुलन्दी कितनी....हासिल कर लें सब इन्सान 
छुअन महसूस कराने वो आसमान नहीं आता


दीमकों ने खोखला बना दिया जिस्म को सखी
के फिर से मजबूत करने का अरमान नहीं आता


बहुत सम्भाल कर रखते हैं "गुल" तितलियों को
अब तो नजरों में बेनज़ीर के सम्मान नहीं आता


बहुत कम कहना है मुझे समझना बहुत है तुम्हें 
हर शब्दों के लिफाफे में वेद- कुरान नहीं आता


 



Priya singh


नूतन लाल साहू

प्रभु का भजन
जब छोड़ चलू,इस दुनिया को
होठो पे नाम तुम्हारा हो
चाहे स्वर्ग मिले या नरक मिले
हृदय में वास, तुम्हारा हो
जब छोड़ चलू,इस दुनिया को
होठों पे नाम तुम्हारा हो
तन श्याम नाम की चादर हो
जब गहरी नींद में,सोया रहू
कानो में मेरे गुंजित हो
कान्हा बस,नाम तुम्हारा हो
जब छोड़ चलू इस दुनिया को
होठों पे नाम तुम्हारा हो
रसते में तुम्हारा,मंदिर हो
जब मंजिल को,प्रस्थान करू
चौखट पे तेरी मनमोहन
अंतिम प्रणाम हमारा हो
जब छोड़ चलू इस दुनिया को
होठों पे नाम तुम्हारा हो
उस वक्त कन्हैया,आ जाना
जब चिता में,जाके शयन करू
मेरे मुख में तुलसी,मन में राम
इतना बस काम,तुम्हारा हो
जब छोड़ चलू इस दुनिया को
होठों पे नाम तुम्हारा हो
अगर भक्ति की है,मै तुम्हारी
तो मुझको ये,उपहार मिले
इस भक्त का सावरिया
जन्म दुबारा,जग में न मिले
जब छोड़ चलू,इस दुनिया को
होठों पे नाम तुम्हारा हो
चाहे स्वर्ग मिले या नरक मिले
हृदय में वास तुम्हारा हो
जब छोड़ चलू,इस दुनिया को
होठों पे नाम तुम्हारा हो
नूतन लाल साहू


प्रवीण शर्मा ताल*

*है कहां जिंदा ईमान अब?*



अंधे बनके रह गए कानून
प्रजातन्त्र में फैला हनीमून
लोकलाज की बनी सत्ता
झूठ बिका इतना सस्ता।


तोड़ दी न्याय की कमान जब
है कहां  जिंदा ईमान अब।


निर्भया को नही मिला न्याय
गढ़ा कहां अन्याय का डंडा,
खुश हो रहा वो अब  दरिंदा
 लटका कहां  फांसी का फंदा।


 है  कहां रक्षक संग्राम जब,
है कहां जिंदा ईमान अब ।


जनगणमन अधिनायक गाते है
जय जवान का नारा गुँजाते है
 न्याय नही मिला उस माँ  को
मोहरा बना के आँसू बहाते है।


है कहां जिंदा  विधान अब
 है कहां जिंदा ईमान अब ।


शिक्षा दीक्षा सब धूमिल हो गई
प्रजातन्त्र में कहाँ भूल हो गई
 देकर रिश्वत का लालच  उसे
सत्य के दरवाजे पर धूल हो गई।


न्याय बिका खुलेआम जब,
है कहां जिंदा ईमान अब।


सीता ,सावित्री ,द्रोपदी अपनी
लुटती अस्मिता को पुकार रही 
उड़ते उड़ते दुर्वशासन ,रावण से
चोरहे पर अपनी जान छुड़ा रही।


खोज रही नारी सम्मान जब,
है कहां जिंदा ईमान अब ।।


पैसा रुपया बाजार गर्म है
पांडाल में दिखावा कर्म है
क्या यही इंसानियतता का
बाबा साधु  इंसान का धर्म है।


चीत्कार बढा  परवान जब
है कहां  जिंदा ईमान अब ।


 


*✒प्रवीण शर्मा ताल*


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
         *"आंगन"*
"महकता रहे जीवन आंगन,
हर पल खिलते रहे फूल।
अपनत्व के आंगन में साथी,
दे न अपना कोई शूल।।
कर देना तुम क्षमा साथी,
अपनो से हो जाये भूल।
प्रेम पथिक तुम बन साथी,
बन जाना जीवन का मूल।।
आस्था-विश्वास से ही ही तो,
अपनत्व के खिलते फूल।
अपनो के आधात से ही,
तन-मन में चुभते शूल।।
चाह यही साथी अब जग में,
हो न जाये कोई भूल।
महकता रहे जीवन आंगन,
हर पल खिलते रहे फूल।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःः          सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.abliq.in
ःःःःःःःःःःःःःःःःः        09-02-2020


डा0विद्यासागर मिश्र"सागर" लखनऊ उ0प्र0

आज का सृजन
भारतीय नारियो को कहते जो अबला है,
यह बात बन्धु मेरे समझ न आयी है।
वक्त पर रक्त को चढ़ाया मातृभूमि पर,
रण्भूमि आने मे भी नही शर्मायी है।
दांत खट्टे कर दिये रण्भूमि बैरियो के,
काटि काटि मुंड रण भूमि मे गिरायी है।
वीर पृसूता यहाँ की नारियाँ सदैव रही,
इसीलिए नारी यहाँ सबला कहायी है।।
रचनाकार 
डा0विद्यासागर मिश्र"सागर"
लखनऊ उ0प्र0


संजय शुक्ल कोलकाता।

हथेलियों की दुआ साथ लेके आई हो।
कभी तो रंग मेरा हाथ की हिनाई हो।।


कोई तो हो जो मेरे मन को रोशनी कर दे।
किसी का प्यार सबां मेरे नाम लाई हो।।


आरिज़े गुल की छुवन खुशबू-ए वफ़ा लाई।
किसी के हाथ की खुशबू बहार लाई हो।।


कभी तो हो मेरे घर में भी ऐसा मंज़र ।
बहार खुद ही मेरी खिडकी से मुस्कुराई हो।।


वो सोने-जागने का मौसमों का फुसूं ।
संजय नींद में हो मगर नींद भी न आई हो।।


✍🏻रचनाकार: संजय शुक्ल
कोलकाता।


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