निर्मल जैन "नीर"

नया रास्ता....
******************
मंजिल पाता~
नित नये रास्तों को
जो अपनाता

सुहानी भोर~
रच तू इतिहास
बदला दौर

क्यों घबराना~
नये रास्तों पे ख़ुद
को आजमाना

थकना नही~
नये रास्ते पे तुम
रूकना नही

बढ़ते जाना~
नये ख्वाबों को तुम
गढ़ते जाना

******************
  💦निर्मल नीर💦


हरिओम "भारतीय"

दर्द किसानों का जो सह ले वो ही इक इंसान है l
धूप में तपते हैं जो दिनभर वो अपना सम्मान हैं l
वो जय जय जय जवान है,वो जय जय जय किसान है l


बंजर भूमि को बच्चों कि तरहा पाला करते हैं l
भूमि को अपनी मां कहते और उसको संभाला करते हैं l देश चलाने वाले क्या देश चलाने लायक हैं l
देश चलाने वाला देखो केवल एक किसान है l
वो जय जय जय जवान है,वो जय जय जय किसान है l


अधिकाधिक बेटे फ़ौज में हैं हाँ अपने इन्हीं किसानो के l मिट्टी कि सेवा कि ख़ातिर हाँ फूंक दिए अरमानों को l लेकिन परवाह नहीं उनकी न कोई पहचान है l
कहने को वो हैं किसान पर भारत के दिनमान हैं l
वो जय जय जय जवान है,वो जय जय जय किसान है l


लगा जी. एस. टी. से कुछ होगा उसमें भी वो ठगे गये l अपनों के संग रहे मगर वो अभिमन्यु सा फसे रहे l किसान योजना चलती हैं कितनी उनको मिल पाती हैं l माना कि क़र माफ़ किया उनका तो क्या कोई
अहसान है l
वो जय जय जय जवान है,वो जय जय जय किसान है l


                   हरिओम "भारतीय"


आनंद पाण्डेय "केवल"

सतत पटल पर,,,,


कहती थी जो नानी कहानी,
बात हुई वो तो बड़ी पुरानी,
देख आज का चलन लगा के
बात मोहब्बत हुई बेमानी,,,,,
मुफ्त की चीजों के क्यों आगे
दिल्ली हो रही बड़ी दीवानी
राष्ट्रवाद को हरा के मूर्खो ने
दे दी है गद्दारी की निशानी,,,,,
मुश्लिम कौम की एकता देखी
जग ने देखी जहरीली बानी
हिन्दू राष्ट्र नवनिर्माण के हेतु
अब तो जागो हिंदुस्तानी,,,,,


आनंद पाण्डेय "केवल"


 


रामबाबू शर्मा, राजस्थानी, दौसा(राज.)

🌱हाइकु🌱
                  
                 चांदनी रात
              टिमटिमाते तारे
                 मन हर्षाये ।
            🌕🌙🌕🌙🌕
            ⭐✨⭐✨⭐✨


                  दुखी जीवन
              फिसले मुट्ठी रेत
                   करे प्रयास ।
                  
                 जल अमृत
              मन से सोचे सब
                  बचें जरूर ।
            🌧🌧🌧🌧🌧🌧
            💦💦💦💦💦💦


                 अनुशासन
             जीवन उपयोगी
                  बढे कदम ।
            🏃🏃🏃🏃🏃🏃
            🕉🕉🕉🕉🕉🕉
             ©®
              रामबाबू शर्मा, राजस्थानी, दौसा(राज.)


रामबाबू शर्मा,राजस्थानी,दौसा(राज.)

🌴पर्यावरण संरक्षण🌴
      जितने भी है,सज्जन सारे,
      सबको शीश झुकाता हूँ ।
      पर्यावरण चेतना के भाव,
      मै आज,गीत में गाता हूँ।।
      
      अगर,कुछ गलती हो तो ,
       माफ मुझे कर देना ।
      याद रहे कर्तव्य हमारे,
      शपथ आज तुम ले लेना।।


       हम स्वार्थ के अन्धे ,भूले,
       जीवन के अहसासों को ।
       हमने भौतिक धर्म सजाकर,
       जकड़ा,उडती साँसों को ।।


       उठती आज वेदना मन में,
       देख धरा के सीने को ।
       कटते वृक्ष ,बचाने प्रकृति,
       लालायित हैं जीने को ।।


       हाल रहा,यदि यही तो ,
      प्रकृति ऐसा नाच दिखाएगी।
      भौतिकवादी सत्ता पल में,
     तहस- नहस हो जायेगी ।।


      सदियों से सुनते आये हम,
      वृषा पेड बुलाते है ।
      फिर भी काट- काट कर हम,
      इनकी देह जलाते है ।।
   
     धुआं,शोर, शराबा  इससे ,
     हमकों नित बचना होगा ।
     प्रदुषण के इस पिशाच को,
     अब, वस मे करना होगा ।।


     चलो करें हम आज प्रतिज्ञा,
     करे ,जैव संरक्षण हम ।
     ताकि नहीं भविष्य में पायें,
     कोई मनुज रंज-ओ-गम ।।
         रामबाबू शर्मा,राजस्थानी,दौसा(राज.)


नूतन लाल साहू

कविता
कविता धरती के गर्भ से
जन्म लेने वाले पौधे की
कोमल डाली है
कविता,आदमी को आदमी से
प्यार करना,सिखाती है
कविता कांटो के बीच
गुलाब पैदा करती है
कविता प्रसाद का,वह आंसू है
जो गागर को सागर बना देती है
कविता आदमी को आदमी से
प्यार करना सिखाती है
कविता में प्रभु राम के
बालपन की छबि होती है
जिसे देखकर, मां कौशिल्या का
आंचल,दूध से भर जाती है
कविता,कृष्ण की किलकारी है
जिसे सुनकर, मां यशोदा
मठा,बिलोना भुल जाती है
सर को साधना और
साधना को शक्ति बना देती है
कविता आदमी को आदमी से
प्यार करना,सिखाती है
कविता तार तार को शब्द और
शब्द को तीर,बना देती है
कविता,मीरा की लगन है
कबीर का,भजन है
कविता, एक कल्पना है
मै सच कहता हूं,मित्रो
कविता,सत्यम,शिवम्, सुंदरम है
कविता,धरती के गर्भ से
जन्म लेने वालेे,पौधे की
कोमल डाली है
कविता,आदमी को आदमी से
प्यार करना,सिखाती है
नूतन लाल साहू


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"गुंजन"* (दोहे)
-------------------------------------------
*वन-वन उपवन उल्लसित, मद-मधुरिम मधुमास।
अलि-गुंजन आलाप-लय, प्रगटे पुलक-प्रभास।।


*रंगित कुंजन रंग नव, स्वर्णिम बौर रसाल।
पहल-पुलक पिक पीकना, मधुकर-गुंजन ताल।।


*ताम्र-पीत तन श्याम छवि, गुनगुन गुंजित गान।
कनक कुसुम किसलय कली, विकसे विटप-वितान।।


*नित नवरंग निकुंज उर, अलि-मन कर गुंजार।
प्राणित पल प्रतिप्राण है, अभिनव गुंजन सार।।


*संचय नव मधु मुकुल-उर, महक मदिर मग वास।
मौन मुग्ध गुंजन गहन, नृत्य नित्य रम रास।।
------------------------------------------
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
------------------------------------------


कौशल महंत"कौशल"

,      *जीवन दर्शन भाग !!३३!!*


★★★
माता समझाने लगी,
            सुने ध्यान से पुत्र।
सरल सहज पाने लगा,
            इस जीवन का सूत्र।
इस जीवन का सूत्र,
            जटिल है पालन करना।
पर जो करे प्रयास,
            सरल संचालन करना।
कह कौशल करजोरि,
            समय ही मार्ग दिखाता।
बरसाती निःस्वार्थ,
            छाँव आँचल से माता।
★★★
बाबू जी ने प्यार से,
            दिया सिखावन सीख।
जग मतलब तक चूसता,
            फिर फेंके ज्यों ईख।
फिर फेंके ज्यों ईख
            नहीं मतलब का होता।
जग में सदा बगास,
            पड़ा कूड़े में रोता।
कह कौशल करजोरि,
           करे जो मन पर काबू।
जग में करता नाम,
            उच्च पद का बन बाबू।।
★★★
धारण करता जा रहा,
             मात-पिता का त्राण।
जीवन में होने लगा,
            नव-युग का निर्माण।
नव-युग का निर्माण,
            उजाला भर जीवन में।
त्यागे सभी विकार,
            स्वतः ही अपने मन में।
कह कौशल करजोरि,
            सत्य का हो संचारण।
मानवता का भाव,
            हृदय जो करले धारण।।
★★★


कौशल महंत"कौशल"
,


सीमा शुक्ला

आया है फिर से ये बसंत ........
मुस्कान सभी के अधरों पर हो
 जीवन मे खुशिया अनंत, 
अनुराग का राग लिए हिय मे 
आया है फिर से ये बसंत ।..............
पतझड़ के वीराने उपवन 
हो गये पल्लवित सारे वन, 
धरती की अनुपम छटा देख 
हो उठा तृप्त ये अन्तर्मन ।
हरियाली ने कर दिया आज 
धरती का सुन्दर अलंकार 
मन मुदित हो रहा देख यहां
अवनी का अतुलित ये सिंगार ।
खिलखिला रहे खेतो के बीच, 
पीले पीले सरसो के फूल, 
सबके मन मे उम्मीद जगी, 
सब गये हृदय के शूल  भूल ।
खिल उठे ठूंठ से पेड़ो मे, 
बासंती सुन्दर से पलास
कह रहे छुपा अपने अंदर 
मत करो कही सुख की तलाश ।
ऋतुराज कह रहा हे मानव 
अब उठो हुआ हर दुख का अंत 
अनुराग का राग लिए हिय मे
 आया है फिर से ये बसंत ..................
हो गई ठिठुरती ठंड खतम 
गुनगुनी धूप से साज हुआ, 
भर दे उमंग जो सतरंगी 
उस फागुन का आगाज हुआ।
बौरों से है लद गई झुकी 
आमों के पेड़ो की डाली, 
बन हार धरा का शोभित है 
लड़ियो मे सरसो की बाली।
कानो मे मिश्री घोल रहा 
मीठे सुर मे कोयल का राग, 
चहुंओर सुगन्धित वायु चले, 
महकाये मन उड़-उड़ पराग।
मदमस्त हवाओ का झोंका, 
आकाश बीच उड़ती पतंग, 
जो नही पास है उन्हे बुलाने 
की मन मे जागी उमंग ।
मन लगे झूमने मस्ती मे, 
जब महक उठे ये दिग- दिगंत
अनुराग का राग लिए हिय मे 
आया है फिर से ये बसंत .............
           सीमा शुक्ल


कुमार कारनिक  (छाल, रायगढ़, छग) """""


   मनहरण घनाक्षरी
           *भूख*
            """"""
भूख   से  बेहाल  लोग,
हुए     तंगहाल    लोग,
सपने     संजोए    हुए,
       कहना जरूरी है।
🌸🌼
पेट की  आग  के लिए,
मासूम  बच्चों  के लिए,
जिस्म  नीलम  हो रही,
         मेरी मजबूरी है।
🏵😌
सीख  देते   सारे  जहां,
काम   लेते  यहां  वहां,
हे   नजरों   से   देखते,
       बात जरा बूरी है।
💫🌸
खून   पसीना   बहाएं,
इज्ज़त की रोटी खाएं,
ईश्वर   के   गुन   गाएं,
       चिंतन जरूरी है।
          
             🙏🏼
                 *******


गनेश रॉय "रावण" भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़

"गाँव का ईश्क़"
""""""""""""""""""""
चोरी-चोरी चुपके-चुपके
गलियों से जब गुजरती थी
आँखों में शर्म होठों पे लाली
जब श्रृंगार वो करती थी


दूर से देखती और शर्माती
नैन चार वो करती थी
जब भी कहती कोई बात मुझसे
पैरों की, उँगलियाँ दिखाया करती थी
जब भी मिलता उनसे कभी
वो सीने से लिपट जाया जाती थी
एक शब्द भी नहीं निकलता मेरा
जब उँगली अपने ...
मेरे होठ पर रख देती थी


वो गाँव का ईश्क़ है साहिब
जो आज भी करने को मन करता है
चोरी-चोरी चुपके-चुपके
वही नैन चार करने को मन करता है


मिलने की चाहत में 
आज भी दीवार फांदने को मन करता है
रखके सर आँचल में उसके सोने को मन करता है
ये गाँव का ईश्क़ है साहिब
क्यो बार - बार करने को मन करता है ।


गनेश रॉय "रावण"
भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
9772727002
©®


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल  संपर्क - 9466865227 झज्जर ( हरियाणा )

लौटने का सबब.... 


एक दिशा से मिलेगी 
जीवन की मंज़िल कहीं. 
चलते -चलते 
कितनी दूर निकल आए 
कहीं पहुँचने की उम्मीद लेकर 
आए तो राहें दिख रही थी 
लौटने का कोई रास्ता नहीं 
बीच बाग, सब्ज़ -पत्ते 
सब हुए खामोश 
जैसे उनसे कोई वास्ता नहीं 
पानी को ठहरा देखा 
कई बार पीछे मुड़कर देखा 
नदी से भी रास्ता बूझा 
मेरा सवाल उससे रहा 
उसने कहा
 "मैं किसी से भी नहीं बूझती
बस बहती जाती हूँ 
तुम भी बस बढ़ते चलो 
कुछ ढलान आएँगी 
कहीं फ़िसलन आएगी 
पहाड़ी रास्ते खुरदरे होंगे". 
और मुझे एक हौसला मिला 
उम्मीद से भरा सिला मिला 
और मैं चलता गया 
इस एक ज़िन्दगी में "उड़ता "
यही सबब अपना था. 



द्वारा - सुरेंद्र सैनी बवानीवाल 
संपर्क - 9466865227
झज्जर ( हरियाणा )
udtasonu2003@gmail.com


श्याम कुँवर भारती

कविता  माँ दे दो दो रुपया  
“दो रूपया”  प्रकाशित काव्य संकलन से साभार 
माँ दे दो दो रुपया इंटेरबियू मे जाना है |
बिना टीकेट ट्रेन से चला जाऊंगा ,
दिन भर भूखा रह लूँगा,
माँ चप्पल है टूटी ,
किस्मत है फूटी ,
सिलानी है चप्पल ,
माँ दे दो दो रुपया इंटेरबियू मे जाना है |
चलाकर रिक्सा पिताजी ने ,
बीए पास करा दिया है ,
मै न चलाऊँगा रिक्सा ,
साहब बनूँगा ,
माँ मैंने फार्म भर दिया है ,
तू भूखी रही है |
मेरी किताबों के लिए ,
घरो मे बर्तने धोती रही है |
माँ दे दो आशीर्वाद ईंटरबियू  मे जाना है |
जब बनूँगा साहब ,
तुझे बर्तन धोने न दूंगा ,
पिताजी को रिक्सा चलाने न दूंगा |
उनकी टीवी का इलाज करवाऊँगा ,
ला दूंगा तुझे पावर चशमा ,
बनवा दूंगा टूटी छत ,
टूटी चारपाई भी न रहेगी ,
साड़ी मे पेबन्द मत लगाना 
महाजन के कर्जे भी चुका दूंगा,
माँ दे दो दो रुपया इंटरबियू मे जाना है |
श्याम कुँवर भारती


सुनीता असीम

लग रहे ख्वाब सभी तबसे ही ख़ारों की तरह।
हो गए जबसे तुम्हीं गुम हो सराबों की तरह।
***
तुम रहो अपने महल अपने ही चौबारों में।
अपने ही घर में हम भी रहें नबाबों की तरह।
***
इक नज़र देख लिया करना झरोखों से तुम।
शर्म से गाल खिलेंगे ये गुलाबों की तरह। 
***
जब उठा दिल में सवालों का समन्दर कोई।
सामने आईं तभी तुम तो जबाबों की तरह।
***
हर्फ दर हर्फ तुझे पढ़ती रहूँ हर पल मैं।
चेहरा तेरा लगा मुझको किताबों की तरह।
***
सुनीता असीम
१७/२/२०२०


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचना: मौलिक(स्वरचित) नयी दिल्ली

स्वतंत्र रचना सं. २६८
दिनांक: १७.०२.२०२०
वार: सोमवार
विधा:दोहा
छन्द: मात्रिक
शीर्षक: तड़प रही प्रियतम मिलन
नव    रंगों    से    सजा , आया    फागुन    मास। 
इतराती   रति     रागिनी ,  इठलाती     मृदुभास ।।१।।
जुगनू  बन  निशि साजना , आंख  मिचौली  रास।
तड़प रही  प्रियतम  मिलन , वासन्ती  अभिलाष।।२।।
फूलों  से   कुसमित  चमन , भंवर  मत्त  मधुपान। 
रंगीली   तितली    प्रिये , मिलन   प्रीत   अरमान।।३।।
चन्द्रमुखी   अस्मित    अधर , पैनी   कजरी  नैन।
वासन्ती   रति   रागिनी , प्रीत   विरह  कहं   चैन।।४।।
मना   रही  पिक  गान से ,मधुरिम  अलि  संगीत।
धवल ओस  नैनाश्रु से , रच  सजनी  निशि  प्रीत।।५।।
मन विकार  प्रिय  राग  सब , मिटे  रंग  मुख मेल।
फागुन रस  मन  मधुरिमा , प्रेम सरित्   अठखेल।।६।।
महक रहे तरुवर रसाल , कुसुमित  मुकुल पराग।
बनी  अधीरा  प्रियतमा , मिलन  सजन  अनुराग।।७।।
शीतल मन्द समीर नित , जाग्रत  रति  मन  भाव।
विहंसि चांद लखि चांदनी ,मदन बिद्ध चित  घाव।।८।।
नीलाम्बर   छायी    निशा , सज   सोलह   शृंगार। 
शरमाती   लखि चांदनी , सजन  चन्द्र  अभिसार।।९।।
मन्द मन्द   मुस्कान से ,मना   रहा   निशि   चन्द। 
देख   रागिनी   चांदनी , हर्षित   मन     मकरन्द।।१०।।
जले होलिका विरह की , खिल सरोज मन   नेह।
सुरभि   मनोहर  माधुरी ,  प्रीत  गीत  हर     गेह।।११।। 
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचना: मौलिक(स्वरचित)
नयी दिल्ली


अवनीश त्रिवेदी "अभय"

एक फागुन का अवधी छंद...


बरसति   रंग  बड़ा, भीगति हैं  संग  बड़ा,
आऔ  है  फागुन  बहे, पछुआ सुहानी है।
गावति   बसंत  गीत, सबको   है  मनमीत,
आइने  को  देख  देखो, गोरी  हरसानी है।
निज  रुप  निहारिके, घूँघट  मुख  डारिके,
चलति  है  ऐसे  जैसे, पति  सो रिसानी हैं।
आँख कारी रेख खीच, कोमल अधर बीच,
रोज  चुपके  से दबी, मुस्कान मुस्कानी है।


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


कैलाश , दुबे ,

जो मेरा कातिल है ,
बो मेरे पास रहता है ,


कहता नहीं मुझसे कुछ ,
पर आसपास कहता है ,


बड़े जतन से पाया है मैंने उसे ,
अब मेरे पास हमेशा रहता है ,


कैलाश , दुबे ,


सत्यप्रकाश पाण्डेय

खुद को देखता हूँ आईने मैं,
तुम्हारी सूरत नजर आती है।
यह मेरा भ्रम है या हकीकत,
कि तेरी मूरत नजर आती है।।


वह क़ातिलाना अंदाज तेरा,
और ये घूर कर देखना मुझे।
मैं समा जाऊँगा आगोश में,
फिर बुरा क्यों लगता तूझे।।


तितली नहीं भौरे है हम तो,
आदी है हुश्न के रसपान के।
पियेंगे अधरों से जाम प्रिय,
हे प्रियतमा यौवन खान के।।


अनुभूति तुम मेरे ह्रदय की,
अजनबी नहीं तुम्हारे लिए।
क्यों अनजानी सी हो जाती,
जब जीवन ही तुम्हारे लिए।।


कष्ट होता तुम्हें आह हमारी,
क्यों दर्द का अहसास नहीं।
हमदर्द बने क्यों न सत्य की,
क्यों करती तू विश्वास नहीं।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय


निशा"अतुल्य"

निशा"अतुल्य"
देहरादून


         पहचान बदल जाती है
दिनाँक       17/ 2/ 2020


वक़्त बदलता है जब
इंसान चला जाता है 
कहलाता था जो शरीर 
वो मिट्टी कहलाता है।


मिलकर पंचभूत में 
पहचान बदल जाती है।
कल जो चलता था शरीर
तस्वीर बदल जाती है।


होता था जो खुश 
पहन गले में हार 
देख तस्वीर पर उसे 
ज़िन्दगी आँख चुराती है।


अज्जब गज्जब सी रवायतें है
कहाँ कुछ कहती सुनती है
निकलती सांस शरीर से 
नाता सबसे तोड़ जाती है।


तिनका-तिनका जोड़ 
बनाया था एक जहां
एक पल न लगा उसे
छोड़ जाने कहाँ चली जाती है।


समय गुज़रता है जब जैसे
सूरते हालात बदल जाती है 
बनकर मिट्टी शरीर की
पहचान बदल जाती है ।


स्वरचित
निशा"अतुल्य"


सुनीता असीम

फेसबुक की महिमा न्यारी।
प्यार मुहब्बत सबपे तारी।
***
अपनी देखें मुंह बनाए।
गैर की बीबी लगती प्यारी।
***
घर गिरस्थी बोझ लगे अब।
सूख रही घर की फुलवारी।
***
बढ़ती उम्र में खेल रचाया।
बुड्ढों की बुड्ढी से .. यारी।
***
इधर से पकड़ा बीबी ने जब।
उधर से भी पड़ती है गारी।
***
परनारी का शौहर पकड़े।
मैसेंजर पे बात हो सारी।
***
दूजी दिल जितना बहला दे।
अन्त में अपनी लगती प्यारी।
***
इस यारी ने घर हैं तोड़े।
गलती है यारो ये भारी।
***
ये समस्या खूब बढ़ी है।
इक फतवा इस पर हो जारी।
****
सुनीता असीम
१७/२/२०२०


संजय जैन (मुम्बई

*श्रोता बन गया आशिक*
विधा : कविता


मिले हम अपनी कविता, 
गीतों के माध्यम तुमसे।
परन्तु ये तो कुछ, 
और ही हो गया।
पढ़ते पढ़ते मेरी गीतों के, तुम प्रसन्नसक बन गये।
और दिल ही दिल में,
हमें चहाने लगे।
और अपने कमेंटो से,
हमें लोभाने लगे।।


दिल से कहूँ तो मुझे भी, 
पता ही नही चला इसका।
और हम भी तेरे कमेंटों, के दीवाने हो गए।
अब तो तेरा मेरा हाल,
कुछ इस तरह का है।
जो एकदूसरे को देखे बिना।
हम दोनों अब रह सकते नहीं।।


कितना दिल से तुमने हमें
पढ़ा।
ये तेरे चेहरे से समझ आता है।
दिल की गैहराइयों से देखे तो।
तुम में हमें मोहब्बत नजर आती है।।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
17/02/2019


एस के कपूर श्री हंस* *बरेली

*आह और  वाह।।।।।।।।।।।*
*।।।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।*


गति  ओ  प्रवाह    का   दूसरा
नाम ही तो जीवन है।


सहयोग ओ परवाह का दूसरा
नाम ही तो जीवन है।।


कर्म की धारा और  विवेक की
पतवार मिल कर चले।


आह और    वाह    का  दूसरा
नाम ही तो   जीवन है।।


*रचयिता।।।।एस के कपूर श्री हंस*
*बरेली।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।*
मोब   9897071046।।।।।।।।।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


एस के कपूर श्री हंस* *बरेली*

*कुछ अच्छे अहसास तुम बांटो*
*।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।*


नफरत     का   विष  नहीं,
आस  तुम  बांटों।


बन     कर के  एक   दिया,
प्रकाश तुम  बांटों।।


ये जो जीवन मिला  तुमको,
कुछ अर्थ हैं इसके।


पूरी हो किसी की  मुराद वो,
विश्वास   तुम बांटों।।


*रचयिता।।।।एस के कपूर*
*श्री हंस।।।।।बरेली।।।।।।*
मोब नॉ   9897071046
8218685464।।।।।।।।


एस के कपूर श्री हंस* *बरेली*

*प्रभु की अदालत में हर कर्ज़*
*चुकाना पड़ता है।मुक्तक।।।*


विधाता   की    अदालत  में
हर  दर्द   सुनाना  पड़ता  है।


 निभाये   नहीं   जो     फ़र्ज़
उनको  बताना     पड़ता  है।।


बिन   कागज़  कलम   ईश्वर
रखता हर कर्म   का हिसाब।


ऊपर उसके  दरबार  में  तुझे
हर  कर्ज़  चुकाना   पड़ता है।।


*रचयिता।एस के कपूर श्री हंस*
*बरेली*
मोबाईल
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सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
         *"आधार"*
"सत्य-पथ पर चलकर ही यहाँ,
संग मन भरता विश्वास हैं।
मिल साथी अपनो को जग में,
बाकी यही पल पल आस हैं।।
प्रेम-सेवा-त्याग में ही फिर,
भरा इस जीवन का सार हैं।
पाते समरसता सुख दु:ख में,
यही तो जीवन आधार है।।
भटकन ही भटकन जग में जब,
बढ़ता स्वार्थ अंहकार हैं।असीम सुख की अभिलाषा में,
मिलता दु:खो का भण्डार हैं।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः         सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.abliq.in
ःःःःःःःःःःःःःःःःःःः         17-02-2020


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