*एक बेटी ऐसी भी*
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जब आंखें
उसकी खुली
कुछ जानने समझने
लायक हुई
मलिन बस्तियां स्वागत में
खड़ी थी उसके
एक गहन अंधेरा
अगले दिन का सबेरा
बाप पर कर्ज़
और शरीर में असंख्य मर्ज
ग़रीबी की चादर में लिपटा
इक्कीसवीं सदी का भारत
पढ़ाने के लिए
संघर्ष के कागज़ की किताब
प्रकाश के इस युग में
अब भी ढिबरी
रोटी की तलाश में
भविष्य के फूलों का खिलना
दूर-दूर तक नहीं
फटे हुए वस्त्रों में
छिपा हुआ बचपन
इमदाद के लिए
कोई हाथ नहीं
सुनहले स्वप्न को संजोए
आंखों में धुंध
सर्वत्र झांकती हुई निराशा
दूर-दूर तक व्याप्त थी
एक ऐसी बेटी को पिता ने
जन्म पर उसके
एक नायाब तोहफ़ा कोमल हाथों में उसकी जिद़
के बिना ही दे दिया
इक्कीसवीं सदी की वह बेटी
उसे लिए
एक नए भारत की
तस्वीर बदलने
कुज्झटिकाओं से आच्छादित
इस सर्द में फुटपाथ पर
धीरे-धीरे चल पड़ी
एक बेटी ऐसी भी!
संपूर्णानंद मिश्र